रात आधी
खींचकर मेरी हथेली
एक उँगली से लिखा था
‘प्यार’ तुमने
फासला कुछ था हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दिशा दिल की तुम्हारे हो रही थी
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ था
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......
एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्ण-पक्षी चाँद निकला था गगन में
इस तरह करवट पड़ी थीं तुम, कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में
मैं लगा दूँ आग उस संसार में, है
प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर
जानती हो, उस समय क्या कर गुजरने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......
प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ उजाले में अँधेरा डूब जाता
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता
एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा
वह निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने
पर गज़ब का था किया अधिकार तुमने
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......
और उतने फासले पर आज तक, सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौक़ा
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं-
बुझ नहीं पाया अभी तक, उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......
-हरिवंश राय बच्चन
खींचकर मेरी हथेली
एक उँगली से लिखा था
‘प्यार’ तुमने
फासला कुछ था हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दिशा दिल की तुम्हारे हो रही थी
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ था
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......
एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्ण-पक्षी चाँद निकला था गगन में
इस तरह करवट पड़ी थीं तुम, कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में
मैं लगा दूँ आग उस संसार में, है
प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर
जानती हो, उस समय क्या कर गुजरने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......
प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ उजाले में अँधेरा डूब जाता
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता
एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा
वह निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने
पर गज़ब का था किया अधिकार तुमने
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......
और उतने फासले पर आज तक, सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौक़ा
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं-
बुझ नहीं पाया अभी तक, उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......
-हरिवंश राय बच्चन
21 comments:
अभिव्यक्ति एवं शब्दसंयोजन अत्यंत प्रभावशाली।छल छल बहता भाव निर्झर।
बहुत सुंदर प्रेम गीत
बहुत सुंदर गीत
अत्यंत सुंदर। धन्यवाद आदरणीय इसे साझा करने के लिए।
अत्यंत सुंदर। धन्यवाद आदरणीय इसे साझा करने के लिए।
अत्यंत सुंदर। धन्यवाद आदरणीय इसे साझा करने के लिए।
अत्यंत सुंदर। धन्यवाद आदरणीय इसे साझा करने के लिए।
वाह ! बहुत सुंदर गीत । शब्दों के साथ दृश्य उभर आया । रेणु चन्द्रा
सरल शब्दों में सुंदर अभिव्यक्ति!
दिलों में उठती प्रेम-तरंगों और दायरे निभाने के नियमों की उत्तम अभिव्यक्ति, भावावेग थम जाने के बाद की दशा और किसी के आजीवन उस क्षण की याद में व्यथित रहने का चंद शब्दों में बहुत प्रभावी वर्णन।
प्रगति टिपणीस
प्रेम की मर्यादित प्रस्तुति और गहराई
बच्चन जी की कविता में सर्वव्यापी प्रेम की अनुभूति कराती है ये कविता।
सोनम
आहा, आदरणीय बच्चन जी का बहुत बढ़िया प्रेमगीत। भावना के समुंदर में डूबी हुई रचना, सहज ही पाठक को उस रात में ले जाती है। बच्चन जी की आशावादी रचनाओं से ही परिचय था मेरा,इस मोह और मर्यादा के बीच झूलती कोमल कविता को साझा करवाने का हार्दिक आभार।
बच्चनजी का मर्यादित प्रेम और विरह- दोनों ही सराहनीय हैं ।
— माया बंसल ।
कितनी मधुर अभिव्यक्ति।ऐसा लगता है भावों को भाषा मिल गई।
पूनम पाठक
बहुत सुन्दर
रुबी
बहुत सुन्दर
रुबी
बहुत सुन्दर
रुबी
बहुत सुन्दर
रुबी दास
निर्झर बहते भाव निर्मल..... अत्यंत सुंदर सृजन।
मधु झुनझुनवाला 'अमृता'
सरल और सहज शब्दों में सुंदर अभिव्यक्ति
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
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