Thursday, August 31, 2023

लौट आओ माँग के सिंदूर

लौट आओ 
माँग के सिंदूर की सौगंध तुमको
नयन का सावन 
निमंत्रण दे रहा है।

आज बिसराकर तुम्हें 
कितना दुखी मन 
यह कहा जाता नहीं है
मौन रहना चाहता, 
पर बिन कहे भी अब 
रहा जाता नहीं है
मीत! अपनों से बिगड़ती है 
बुरा क्यों मानती हो!
लौट आओ प्राण? 
पहले प्यार की सौगंध तुमको
प्रीति का बचपन 
निमंत्रण दे रहा है
लौट आओ... 

रूठता है 
रात से भी चाँद कोई 
और मंज़िल से चरन भी
रूठ जाते 
डाल से भी फूल अनगिन 
नींद से गीले नयन भी
बन गई है बात 
कुछ ऐसी कि 
मन में चुभ गई, तो
लौट आओ मानिनी, 
है मान की सौगंध तुमको
बात का निर्धन 
निमंत्रण दे रहा है
लौट आओ... 

चूम लूँ मंज़िल, 
यही मैं चाहता पर 
तुम बिना पग क्या चलेगा, 
माँगने पर 
मिल न पाया स्नेह तो 
यह प्राण-दीपक क्या जलेगा
यह न जलता, 
किंतु आशा कर रही 
मजबूर इसको
लौट आओ 
बुझ रहे इस दीप की 
सौगंध तुमको
ज्योति का कण-कण 
निमंत्रण दे रहा है
लौट आओ... 

दूर होती जा रही हो 
तुम लहर-सी 
है विवश कोई किनारा-
आज पलकों में 
समाया जा रहा है 
सुरमई आँचल तुम्हारा
हो न जाये आँख से 
ओझल महावर और मेंहदी,
लौट आओ, 
सतरँगी-शृंगार की सौगंध तुमको
अनमना दर्पण 
निमंत्रण दे रहा है
लौट आओ... 

कौन-सा मन 
हो चला गमगीन जिससे 
सिसकियाँ भरतीं दिशाएँ
आँसुओं का गीत 
गाना चाहती हैं 
नीर से बोझिल घटाएँ
लो घिरे बादल, 
लगी झड़ियाँ, 
मचलतीं बिजलियाँ भी-
लौट आओ 
हारती मनुहार की सौगंध तुमको
भीगता आँगन 
निमंत्रण दे रहा है
लौट आओ
यह अकेला 
मन निमंत्रण दे रहा है।

-सोम ठाकुर

3 comments:

Anonymous said...

बहुत सुंदर गीत

नमिता सिंह said...

बहुत सुंदर गीत

सुभाष वसिष्ठ said...

बहुत सुन्दर और अपने समय का बहुत लोकप्रिय गीत।