Saturday, July 28, 2018

राधे

प्राणाधारे परम-सरले प्रेम की मूर्ति राधे
निर्माता ने प्रथक तुम से यों किया क्यों मुझे है
प्यारी आशा प्रिय-मिलन की नित्य है दूर होती
कैसे ऐसे कठिन-पथ का पान्थ मैं हो रहा हूँ

जो दो प्यारे हृदय मिल के एक ही हो गये हैं
क्यों विधाता ने विलग उनके गात को यों किया है
कैसे आ के गुरु-गिरि पड़े बीच में हैं उन्हीं के
जो दो प्रेमी मिलित पय औ नीर से नित्यशः थे
   
उत्कंठा के विवश नभ को, भूमि को पादपों को
ताराओं को, मनुज-मुख को प्रायशः देखता हूँ
प्यारी ! ऐसी न ध्वनि मुझको है कहीं भी सुनाती
जो चिंता से चलित-चित की शांति का हेतु होवे

जाना जाता मरम विधि के बंधनों का नहीं है
तो भी होगा उचित चित में यो प्रिये सोच लेना
होते जाते विफल यदि हैं सर्व-संयोग-सूत्र
तो होवेगा निहित इसमें श्रेय का बीज कोई

हैं प्यारी और मधुर सुख औ भोग की लालसायें
कान्ते, लिप्सा जगत-हित की और भी मनोज्ञा है
इच्छा आत्मा परम-हित की मुक्ति की उत्तमा है
वांछा होती विशद आत्म-उत्सर्ग की है

जो होता है निरत तप में मुक्ति की कामना से
आत्मार्थी है, न कह सकते उसे हम आत्मत्यागी
जी से प्यारा जगत-हित औ लोक-सेवा जिसे है
प्यारी सच्चा अवनि-तल में आत्मत्यागी वही है

जो पृथ्वी के विपुल-सुख की माधुरी है विपाशा
प्राणी-सेवा-जनित सुख की प्राप्ति तो जन्हुजा है
जो आद्या है नखत द्युति-सी व्याप जाती उरों में
तो होती है लसित उसमें कौमुदी-सी द्वितीया

भोगों में भी विविध कितनी रंजनी-शक्तियाँ हैं
वे तो भी हैं जगत-हित से मुग्धकारी न होतीं
सच्ची यों है कलुष उनमें हैं बड़े क्लान्ति-कारी
पाई जाती लसित इसमें शान्ति लोकोत्तरा है

है आत्मा का न सुख किसको विश्व के मध्य प्यारा
सारे प्राणी स-रुचि इसकी माधुरी में बँधे हैं
जो होता है न वश इसके आत्म-उत्सर्ग द्वारा
ऐ कान्ते! है सफल अवनी-मध्य आना उसी का।

जो है भावी परम-प्रबला दैव-इच्छा-प्रधाना
तो होवेगा उचित न, दुखी वांछिता हेतु होना
श्रेयःकारी सतत दयिते सात्विकी-कार्य होगा
जो हो स्वार्थोपरत भव में सर्व-भूतोपकारी            
               
-अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

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