यही आता है इस मन में
छोड़ धाम-धन
जाकर मैं भी रहूँ उसी वन में
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ
रहूँ निकट भी दूर
व्यथा रहे, पर साथ साथ ही
समाधान भरपूर
हर्ष डूबा हो रोदन में
यही आता है इस मन में
बीच-बीच में उन्हें देख लूँ
मैं झुरमुट की ओट
जब वे निकल जायँ तब लेटूँ
उसी धूल में लोट
रहें रत वे निज जीवन में
यही आता है इस मन में
आती जाती, गाती गाती
कह जाऊँ यह बात-
धन के पीछे जन, जगती में
उचित नहीं उत्पात
प्रेम की ही जय जीवन में
यही आता है इस मन में
-मैथिलीशरण गुप्त
छोड़ धाम-धन
जाकर मैं भी रहूँ उसी वन में
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ
रहूँ निकट भी दूर
व्यथा रहे, पर साथ साथ ही
समाधान भरपूर
हर्ष डूबा हो रोदन में
यही आता है इस मन में
बीच-बीच में उन्हें देख लूँ
मैं झुरमुट की ओट
जब वे निकल जायँ तब लेटूँ
उसी धूल में लोट
रहें रत वे निज जीवन में
यही आता है इस मन में
आती जाती, गाती गाती
कह जाऊँ यह बात-
धन के पीछे जन, जगती में
उचित नहीं उत्पात
प्रेम की ही जय जीवन में
यही आता है इस मन में
-मैथिलीशरण गुप्त
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