यह समय दुबारा नहीं लौटकर आयेगा
भरना है तो तुम माँग मिलन की अभी भरो
जब तक श्यामा के मौन महल का स्वप्न-द्वार
खटकाये आ राजा दिन के कोलाहल का
तब तक उठ गागर में उँडेल लो गंगा-जल
आँगन-छाये इस बिना बुलाये बादल का
है बड़ा निठुर निर्दयी समय का सौदागर
रखता है नहीं उधार धूल मुट्ठी-भर भी
पुरवाई ऐसे फिर न झूमकर गायेगी
हरना है तो तुम दाह जलन की अभी हरो
यह समय दुबारा..
घूँघट में शरमाने वाली यह निशिगंधा
संभव है, कल बोले भी तो स्वीकार न हो
यह भी मुमकिन है, कल रूठने-मनाने को
यह रात न हो, यह बात न हो, यह प्यार न हो
भरना है तो तुम माँग मिलन की अभी भरो
जब तक श्यामा के मौन महल का स्वप्न-द्वार
खटकाये आ राजा दिन के कोलाहल का
तब तक उठ गागर में उँडेल लो गंगा-जल
आँगन-छाये इस बिना बुलाये बादल का
है बड़ा निठुर निर्दयी समय का सौदागर
रखता है नहीं उधार धूल मुट्ठी-भर भी
पुरवाई ऐसे फिर न झूमकर गायेगी
हरना है तो तुम दाह जलन की अभी हरो
यह समय दुबारा..
घूँघट में शरमाने वाली यह निशिगंधा
संभव है, कल बोले भी तो स्वीकार न हो
यह भी मुमकिन है, कल रूठने-मनाने को
यह रात न हो, यह बात न हो, यह प्यार न हो
हर एक भक्ति के साथ चल रही है विरक्ति
हर एक राग का आँचल पकड़े है विराग
खिड़की पर ऐसे फिर न घटा अँगड़ाएगी
करना है तो तुम ब्याह सपन का अभी करो
यह समय दुबारा...
रजनी का नौकर दीप, दिवस का स्वामी रवि
सबको करनी है भेंट किसी अँधियारे से
ऐसे ही यह बारात सजी रह जायेगी
हो गया ज़रा बचपन यदि किसी सितारे से
क्या सृष्टि-प्रलय, निशि-दिन के दो पंखों वाला
जो काल-विहग है, उसकी बस परछाईं है
इस तरह धरा फिर से आबाद नहीं होगी
धरनी है तो तुम नींव भवन की अभी धरो
यह समय दुबारा...
अलसाते जूड़े में यह मुस्काता गुलाब
मालूम नहीं किस क्षण चुपके से छूट पड़े
पलकों में शैतानी करने वाला काजल
जाने कब आँसू बन आँचल में टूट पड़े
तन के तो लाख सिंगार, लाख नौलखा हार
मन का आभूषण किन्तु विश्व में सिर्फ प्यार
यह पहली-पहली साध न असफल लौट जाय
मैं ‘नीरज’ बन टेरूँ, तुम शबनम बन निखरो
यह समय दुबारा...
-गोपालदास नीरज
हर एक राग का आँचल पकड़े है विराग
खिड़की पर ऐसे फिर न घटा अँगड़ाएगी
करना है तो तुम ब्याह सपन का अभी करो
यह समय दुबारा...
रजनी का नौकर दीप, दिवस का स्वामी रवि
सबको करनी है भेंट किसी अँधियारे से
ऐसे ही यह बारात सजी रह जायेगी
हो गया ज़रा बचपन यदि किसी सितारे से
क्या सृष्टि-प्रलय, निशि-दिन के दो पंखों वाला
जो काल-विहग है, उसकी बस परछाईं है
इस तरह धरा फिर से आबाद नहीं होगी
धरनी है तो तुम नींव भवन की अभी धरो
यह समय दुबारा...
अलसाते जूड़े में यह मुस्काता गुलाब
मालूम नहीं किस क्षण चुपके से छूट पड़े
पलकों में शैतानी करने वाला काजल
जाने कब आँसू बन आँचल में टूट पड़े
तन के तो लाख सिंगार, लाख नौलखा हार
मन का आभूषण किन्तु विश्व में सिर्फ प्यार
यह पहली-पहली साध न असफल लौट जाय
मैं ‘नीरज’ बन टेरूँ, तुम शबनम बन निखरो
यह समय दुबारा...
-गोपालदास नीरज
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