तुम्हारी देह
मुझको कनक-चम्पे की कली है
दूर ही से
स्मरण में भी गन्ध देती है
तुम्हारे नैन
पहले भोर की दो ओस-बूँदें हैं
अछूती, ज्योतिमय
भीतर द्रवित
मानो विधाता के हृदय में
जग गई हो
भाप करुणा की अपरिमित
तुम्हारे होंठ पर
उस दहकते दाड़िम-पुहुप को
मूक तकता रह सकूँ र्मैं
सह सकूँ मैं
ताप ऊष्मा का
मुझे जो लील लेती है
-अज्ञेय
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