Tuesday, December 08, 2020

सुधि के क्षण

जब याद तुम्हारी आती है,
साँसों में केशर की उसाँस छा जाती है।
सहसा
यह आस-पास का जग,
फीका-फीका-सा लगता है
ऐसा लगता,
जैसे बादल के महलों में मैं बैठी हूँ,
धरती के मानव जहाँ नहीं जा सकते हैं
उन एकाकी महलों में
सुधि का परस
कंप भर देता है।
ऐसी सिहरन,
ऐसा कंपन,
मधु से
भीगा-भीगा-सा मन
मैं भूली सी बैठी रहती,
जैसे पुष्पों का भार लिए सकुचाय लता।
जाने कैसी अनुभूति बिखर जाती है,
मैं सिहर-सिहर रह जाती हूँ
आकंठ डूबकर
मधु के निर्मल सागर में।

-कीर्ति चौधरी

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