लाज भरे नयनों में
दूर, साँझ झाँक रही-
चलो कहीं मिलें-जुलें,
श्वाँस के प्रबंधों में।
सोने-सा रेत उगा,
धरती पर लगता है चैत जगा
झूम रहे उपवन-तरु
सिन्दूर लगा-लगा
अनुमानित भावों की,
अन्तर्ध्वनि गूँज रही
चलो कहीं लग जायें
निश्चय के धंधों में
लाज भरे नयनों में ...
क्षण अतीत बीत गए,
आज स्वतः-
स्वप्न-घटक रीत गए
सत्य के पखेरू, प्रिय!
प्रत्याशित जीत गए
आज तलक, अपनापन,
बहुत-बहुत दूर रहा,
चलो कहीं बाँधें मन,
मादक अनुबंधों में
लाज भरे नयनों में...
उर-उपवन हुए हरे,
झूम रहे
आगत पल राग भरे
बैठ गए पाँखी-स्वर,
गालों पर हाथ धरे
टूट गया अनचाहा
अलगाव-सन्धि-बाँध,
चलो, कहीं तैरें हम,
आग्रह सौगन्धों में
लाज भरे नयनों में ...
-मुनीश मदिर
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