Tuesday, December 08, 2020

प्रिय! सान्ध्य गगन मेरा जीवन!

प्रिय! सान्ध्य गगन,
मेरा जीवन!

यह क्षितिज बना धुँधला विराग,
नव अरुण अरुण मेरा सुहाग,
छाया-सी काया वीतराग,
सुधि-भीने स्वप्न रंगीले घन!

साधों का आज सुनहलापन,
घिरता विषाद का तिमिर सघन,
सन्ध्या का नभ से मूक मिलन-
यह अश्रुमती हँसती चितवन !

लाता भर श्वासों का समीर,
जग से स्मृतियों का गन्ध धीर,
सुरभित हैं जीवन-मृत्यु-तीर,
रोमों में पुलकित कैरव-वन !

अब आदि-अन्त दोनों मिलते,
रजनी-दिन-परिणय से खिलते,
आँसू मिस हिम के कण ढुलते,
ध्रुव आज बना स्मृति का चल क्षण !

इच्छाओं के सोने से शर
किरणों से द्रुत झीने सुन्दर,
सूने असीम नभ में चुभकर-
बन-बन आते नक्षत्र-सुमन !

घर आज चले सुख-दुःख विहग,
तम पोंछ रहा मेरा अग जग,
छिप आज चला वह चित्रित मग,
उतरो अब पलकों में पाहुन !
प्रिय! सान्ध्य गगन,
मेरा जीवन !
-महादेवी वर्मा 

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