रजनीगंधा रूप तुम्हारा
बसा हुआ तन-मन में
देह न बासी हुई कभी भी,
गात न कुम्हलाया
मुस्काता श्वेताभ बाँकपन,
यौवन पर छाया
जब-जब गंध बिखेरी तुमने,
धूम मची उपवन में
रजनीगंधा रूप तुम्हारा...
अनजाना मधुमास पास,
आ-आकर ठिठक गया
अंग-अंग की लाज तुम्हारी,
गढ़ती मिथक नया
देखा जब, तब वैसे पाया
जीवन के दरपन में
रजनीगंधा रूप तुम्हारा...
ऐ मेरे पल-छिन के साथी,
साथ-साथ मुरझाना
रंग-रंग निखरें कण-कण के,
जब तक साथ निभाना
तुम-सा मिला न कोई दूजा,
ढूँढ़ थका घर-वन में
रजनीगंधा रूप तुम्हारा
बसा हुआ तन-मन में।
-उमा प्रसाद लोधी
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