बाँच गीतगोविंद नेह का
तुम कितने बौराये
तन की छत पर झरे रात भर
महुआ गदराये
एक बार अनुवादित कर दो
देहग्रंथ के छंद
उचित और अनुचित में उठता
मिट जाए फिर द्वंद्व
व्योम बराबर तृष्णा की ये
छागल रिस जाए
बाँच गीतगोविंद नेह का...
संस्पर्शों के बल्कल पहने
मिली हंसिनी रातें
आज चलो चरितार्थ करें हम
वात्सायन की बातें
अंग-अंग पर काम समीक्षा
फिर से लिक्खी जाए
बाँच गीतगोविंद नेह का...
मौन जहाँ संवाद बोलते
तम भी लगता उत्तम
ज्ञान और वैराग्य जहाँ पर
हो जाते हैं अक्षम
ये नूतन विज्ञान प्रेम से
नाहक ही डरवपाए
-उमाश्री
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