Friday, August 11, 2023

मैं सतह पर जी न पाई

मैं सतह पर जी न पाई
और तुम उतरे न गहरे

मैं रही मैं, तुम रहे तुम
तुम सघन तो मैं तरल
बर्फ़ से होते सघन तो
बात हो जाती सरल
मैं उमगती बाण-गंगा
और तुम पाषाण ठहरे
मैं सतह पर... 

भीड़ में तो हूँ मगर मैं
भीड़ का हिस्सा नहीं,
भूलना सम्भव न होगा
सिर्फ़ मैं क़िस्सा नहीं
मैं नहीं उनमें, हुए जो-
चेहरों के बीच चेहरे
मैं सतह पर... 

अधर से आई नयन में
मैं वही अभिव्यक्ति हूँ
भक्ति बनने की क्रिया में
चल रही अनुरक्ति हूँ
मैं निरन्तर साधना हूँ
और तुम सपने सुनहरे
मैं सतह पर... 

मुक्त नभ को छोड़ भूले-
से, भला क्या चुन लिया
एक पिंजरा देह का था
एक ख़ुद ही बुन लिया
आर्त स्वर हैं प्रार्थना के
हो गये पर देव बहरे
मैं सतह पर... 

-इन्दिरा गौड़

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