टेरो मत मन
खुले आम
रेत धँसी यादों के गाँव
लेकर के नाम
नीले पानी कंकर क्या फेंका
लहर मरी अँगड़ाकर
तट तक को छू आई
टूटे कुछ साँसों के
टुकड़ों को जोड़कर
ज़िन्दगी पठारों से टकराई
टेरो मत मन
समय वाम
दूर क्षितिज बिखरे आयाम
लेकर के नाम
आवाज़ें बिखरीं
बन सन्नाटा शेष रहीं
पत्तों के गिरने की आवाज़ें
पर्वत के गीतों का आसमान
झील गिर्द घाटी की
अन्तरंग वे साझें
टेरो मत मन
सरे शाम
लुक-छुप के राग रँगे धाम
लेकर के नाम
-सुभाष वसिष्ठ
5 comments:
नवगीतकार ने प्रकृति की चित्रपटी पर मन-कलश
के भावों में डूबी तूलिका से एक अप्रतिम सृजना की है
जिस में लहरों की अंगड़ाई और गिरते पत्तों की
आवाज़ों जैसी मृदुल संवेदनाओं के रंग उभरते हैं!
- डॉ० राय कूकणा, ऑस्ट्रेलिया
वाह वाह अद्भुत सृजन आदरणीय अ
नन्त साधुवाद
इस गीत में प्रेम यादों में डूबी अभिव्यक्ति का बहुत सुंदर चित्रांकन किया है। यादें भी एक दो नहीं बल्कि यादों का गांव यानि अनगिनत यादें। झील,पठार,पत्ते,आसमान,घाटी यानी प्रकृति के माध्यम से क्षितिज यानी अत्यंत या दूर तक फैले प्रेम को खूब दर्शाया है।प्रेम गीत की अच्छी,सुंदर अभिव्यक्ति के लिए सुभाष भाई को बधाई💐
सुभाष जी का यह गीत प्रेम की अति सुंदर भावाभिव्यक्तिहै। यादों में डूबा प्रेम और उसकी पीड़ प्रकृति के मध्यम से बखूबी दर्शायी गई है।
रेखांकन।रेखा ड्रोलिया
Sundar geet.
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