Friday, October 06, 2023

टेरो मत मन

टेरो मत मन 
खुले आम 
रेत धँसी यादों के गाँव 
लेकर के नाम  

नीले पानी कंकर क्या फेंका 
लहर मरी अँगड़ाकर 
तट तक को छू आई 
टूटे कुछ साँसों के 
टुकड़ों को जोड़कर 
ज़िन्दगी पठारों से टकराई  
टेरो मत मन 
समय वाम 
दूर क्षितिज बिखरे आयाम 
लेकर के नाम  

आवाज़ें बिखरीं 
बन सन्नाटा शेष रहीं 
पत्तों के गिरने की आवाज़ें 
पर्वत के गीतों का आसमान  
झील गिर्द घाटी की 
अन्तरंग वे साझें 
टेरो मत मन 
सरे शाम 
लुक-छुप के राग रँगे धाम 
लेकर के नाम 

-सुभाष वसिष्ठ

5 comments:

डॉ. राय कूकणा, ऑस्ट्रेलिया said...

नवगीतकार ने प्रकृति की चित्रपटी पर मन-कलश
के भावों में डूबी तूलिका से एक अप्रतिम सृजना की है
जिस में लहरों की अंगड़ाई और गिरते पत्तों की
आवाज़ों जैसी मृदुल संवेदनाओं के रंग उभरते हैं!
- डॉ० राय कूकणा, ऑस्ट्रेलिया

Himanshu Shrotriya 'Nishpaksh' said...

वाह वाह अद्भुत सृजन आदरणीय अ

नन्त साधुवाद

Anonymous said...

इस गीत में प्रेम यादों में डूबी अभिव्यक्ति का बहुत सुंदर चित्रांकन किया है। यादें भी एक दो नहीं बल्कि यादों का गांव यानि अनगिनत यादें। झील,पठार,पत्ते,आसमान,घाटी यानी प्रकृति के माध्यम से क्षितिज यानी अत्यंत या दूर तक फैले प्रेम को खूब दर्शाया है।प्रेम गीत की अच्छी,सुंदर अभिव्यक्ति के लिए सुभाष भाई को बधाई💐

Rekha Drolia said...

सुभाष जी का यह गीत प्रेम की अति सुंदर भावाभिव्यक्तिहै। यादों में डूबा प्रेम और उसकी पीड़ प्रकृति के मध्यम से बखूबी दर्शायी गई है।
रेखांकन।रेखा ड्रोलिया

Saurabh tyagi said...

Sundar geet.