Thursday, September 07, 2023

ताल-सा हिलता रहा मन

धर गये मेंहदी रचे
दो हाथ जल में दीप
जन्म-जन्मों ताल-सा
हिलता रहा मन

बाँचते हम रह गये
अन्तर्कथा
स्वर्णकेशा-
गीत-वधुओं की व्यथा
ले गया चुनकर कमल
कोई हठी युवराज
देर तक शैवाल-सा
हिलता रहा मन
धर गये मेंहदी रचे...

जंगलों का दुख
तटों की त्रासदी
भूल, सुख से सो गई
कोई नदी
थक गई लड़ती हवाओं से
अभागी नाव
और झीने पाल-सा
हिलता रहा मन
धर गये मेंहदी रचे...

तुम गये क्या
जग हुआ अंधा कुआँ
रेल छूटी, रह गया
केवल धुआँ
गुनगुनाते हम- 
भरी आँखों
फिरे सब रात
हाथ के रूमाल-सा
हिलता रहा मन
धर गये मेंहदी रचे...
     
-किशन सरोज

2 comments:

Anonymous said...

वह क्या खूब ! कितना समझाया - छाया मत छूना मन, मगर मन की मनमानी चलती रही... मन को छू जाने वाली रचना! धन्यवाद व्योम सर साझा करने के लिए.

Anonymous said...

बहुत खूब! कितना समझाया मन को- छाया मत छूना मन, मगर मन की मनमानी चलती रही. मन को छू जाने वाली रचना! धन्यवाद व्योम सर साझा करने के लिए. अति सुंदर

रेखा शर्मा