Friday, October 19, 2018

मैं तुम्हारी ही रहूँगी

काँच हो या आग हो या शूल पथ में
सँग चलूँगी मैं तुम्हारे, जान लो तुम
थी तुम्हारी, मैं तुम्हारी ही रहूँगी
प्रीत जन्मों की मेरी पहचान लो तुम

एक निर्जन द्वीप-सा यह मन रहा है
मन-भुवन में बावला-सा तन रहा है
हो नहीं पाया कोई जिसका ठिकाना
दर्द आँखों से वही तो छन रहा है
अब न जाओगे अकेली छोड़ मुझको
प्राण ! मन में बात बस ये ठान लो तुम

वो नदी हूँ मैं कि जिसमें रेत बहती
कसमसाती मैं यहाँ क्या-क्या न सहती
फिर भी बहना ही नियति है, जानती हूँ
बेबसी में मौन हो कुछ भी न कहती
तुम अपरिमित सिंधु हो दे दो सहारा
मैं तुम्हीं से आ मिलूँगी मान लो तुम

बंधनों में मुक्ति के आयाम मिलते
मोह में भी कामना के फूल खिलते
हो गहन तम दृष्टि के विस्तार में जब
तब हमारे भ्रम हमें ही नित्य छलते
नेह की इन उर्मियों को धनु बना कर
प्रीति के सब शर विकल हो तान लो तुम

-मीरा शलभ

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