आज सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॅा. शिवमंगल सिंह सुमन का एक प्रसिद्ध गीत उनके प्रस्तुत है...
इसे पढ़ें और समझें कि एक बड़े कद के साहित्यकार के गीत में ऐसा क्या होता है जिससे वह कुछ खास हो जाता है ... अपनी टिप्पणी भी लिखें...
...
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली,
साथ नहीं हो तुम।
पेड़ खड़े फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधूली !
साथ नहीं हो तुम।
कुलबुल-कुलबुल नीड़-नीड़ में
चहचह-चहचह मीड़-मीड़ में
धुन अलबेली,
साथ नहीं हो तुम।
जागी-जागी, सोई-सोई
पास पड़ी है खोई-खोई
निशा लजीली,
साथ नहीं हो तुम।
ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमड़ी धारा, जैसी मुझ पर
बीती, झेली,
साथ नहीं हो तुम।
यह कैसी होनी-अनहोनी
पुतली-पुतली आँखमिचैनी
खुलकर खेली,
साथ नहीं हो तुम।
-शिवमंगल सिंह सुमन
6 comments:
वाह डॉक्टर शिव मंगल सिंह सुमन जी का यह गीत मैंने पहली बार पढ़ा “साथ नहीं हो तुम” बहुत ही सुंदर तरीक़े से कहा गया है।प्रिय का साथ नहीं होना कब कब अखरता है
डॉ शिवमंगल सिंह जी की कविताएं पढ़ी थी आदरणीय सर आपके प्रयास से हमें नवगीत पढ़ने मिल रहे हैं । यहां कवि ने आज पहली अकेली सांझ को बड़े ही सुन्दर शब्दों से वर्णित किया है जहां सब कुछ वैसा ही है कुछ बदला नहीं बदला सिर्फ इतना की आज सांझ अकेली है । सुंदर भाव ।
बहुत सुंदर गीत ! विभिन्न सुंदर दृश्यों को देख साथी की कमी से उपजा वियोग गीत पढ़ सचमुच अंदर महसूस होता है ! तिसपर ये की अभी मैं इस गीत को मैं आपके ब्लॉग पर उनकी निवास, जन्मस्थान, कर्मभूमि उज्जैन में बैठकर पढ़ रहा हूं ! दुगुना संतोष !
बहुत सुंदर गीत ! विभिन्न सुंदर दृश्यों को देख साथी की कमी से उपजा वियोग गीत पढ़ सचमुच अंदर महसूस होता है ! तिसपर ये की अभी मैं इस गीत को मैं आपके ब्लॉग पर उनकी निवास, जन्मस्थान, कर्मभूमि उज्जैन में बैठकर पढ़ रहा हूं ! दुगुना संतोष !
सरल सुबोध प्रवाहमयएवं एवं सरस गीत।
साँयकाल की अनुपम बेला में प्रियवियोग की पीड़ा
कवि के कोमल भावों की प्रतीक है । संध्याकाल का चित्रण
उत्तम है ।
- माया बंसल।
Post a Comment