आज अचानक सूनी-सी संध्या में
जब मैं यों ही मैले कपड़े देख रहा था
किसी काम में जी बहलाने,
एक सिल्क के कुर्ते की सिलवट में लिपटा
गिरा रेशमी चूड़ी का
छोटा-सा टुकड़ा,
उन गोरी कलाइयों में जो तुम पहने थीं,
रंग भरी उस मिलन रात में।
मैं वैसा का वैसा ही
रह गया सोचता
पिछली बातें
दूज-कोर से उस टुकड़े पर
तिरनें लगी तुम्हारी सब लज्जित तस्वीरें,
सेज सुनहली,
कसे हुए बन्धन में चूड़ी का झर जाना,
निकल गई सपने जैसी वे मीठी रातें,
याद दिलाने रहा
यही छोटा-सा टुकड़ा।
-गिरिजा कुमार माथुर
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