Thursday, November 23, 2023

तब से है मन चन्दन-चन्दन

दो पाँव अलक्तक गढ़े जड़े-
रुनझुन मेरे आँगन आये
तब से साँसें सौरभ-सी हैं 
तब से है मन चन्दन-चन्दन

वह द्रवित अगन से धवल वरन !
पल में हिय को हरते चितवन !
दो मंगल कलश नयन-युग के
कंचन मन कंचन अंतर्मन !
वे अधर लिए संगीत-सुमन 
मेरे द्वारे जो मुस्काये-
तब से जीवन का रूप हुआ 
इस पल उत्सव उस पल उपवन
तब से है मन चन्दन-चन्दन...

वे पीड़ान्तक मृदु-मधुर हास !
कामना जगाते ललित लास !
वे सुख-दुःख और सितासित में-
समभाव सहज समरस उजास !
दो नैन गहन घन बन कर जो 
जीवन के अम्बर में छाये-
तब से हैं शीतल झील बने 
मेरे तापित शापित तन-मन
तब से है मन चन्दन-चन्दन...

यह गुण सूनापन हरने का,
वह गुण घर को घर करने का,
उनके गुण कारण बन जाते-
अंतर की व्यथा बिसरने का,
दो हाथ मृदुल मेहँदी रंजित 
जाते जो मुझको महकाये -
तब से मुरझे जीवन-वन पर 
झरता जाये सावन-भावन
तब से है मन चन्दन-चन्दन...

-कृष्ण बिहारी शर्मा

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