दो पाँव अलक्तक गढ़े जड़े-
रुनझुन मेरे आँगन आये
तब से साँसें सौरभ-सी हैं
तब से है मन चन्दन-चन्दन
वह द्रवित अगन से धवल वरन !
पल में हिय को हरते चितवन !
दो मंगल कलश नयन-युग के
कंचन मन कंचन अंतर्मन !
वे अधर लिए संगीत-सुमन
मेरे द्वारे जो मुस्काये-
तब से जीवन का रूप हुआ
तब से जीवन का रूप हुआ
इस पल उत्सव उस पल उपवन
तब से है मन चन्दन-चन्दन...
वे पीड़ान्तक मृदु-मधुर हास !
कामना जगाते ललित लास !
वे सुख-दुःख और सितासित में-
समभाव सहज समरस उजास !
दो नैन गहन घन बन कर जो
जीवन के अम्बर में छाये-
तब से हैं शीतल झील बने
तब से हैं शीतल झील बने
मेरे तापित शापित तन-मन
तब से है मन चन्दन-चन्दन...
यह गुण सूनापन हरने का,
वह गुण घर को घर करने का,
उनके गुण कारण बन जाते-
अंतर की व्यथा बिसरने का,
दो हाथ मृदुल मेहँदी रंजित
जाते जो मुझको महकाये -
तब से मुरझे जीवन-वन पर
तब से मुरझे जीवन-वन पर
झरता जाये सावन-भावन
तब से है मन चन्दन-चन्दन...
-कृष्ण बिहारी शर्मा
No comments:
Post a Comment