रूप की पंखुरी धूप-सी खिल गई
जब भ्रमर ने कली के अधर छू लिये।
शूल की सेज पर स्नेह रोया नहीं
ओस के आँसुओं से भिगोया नहीं
गंध का कोष जितना लुटाता रहा
ब्याज बढ़ता गया मूल खोया नहीं
कामना की सुरभि ने सहज भाव से
प्यार की साधना के शिखर छू लिये।
सूर्य जलता रहा है गगन के लिये
फूल खिलता रहा है चमन के लिये
एक पागल प्रलय की कथा बाँचकर
अश्रु बंदी रहा है नयन के लिये
इस महाकाल के जाल को तेड़कर
नेह ने कुछ पलों के प्रहर छू लिये।
चाँद की हर कथा सागरों ने कही
पनघटों की कथा गागरों ने कही
मौत को ज़िन्दगी का सुफल मानकर
एक पावन व्यथा बावरों ने कही।
गीत इतिहास के भाल पर लिख गया
जब लहर ने प्रणय के भँवर छू लिये।
-डा० प्रभा दीक्षित
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