मुझे बुला कर मधुशाला में
तुमने पीना सिखा दिया।
मुझको जीना सिखा दिया।।
प्याले कभी नयन बन जाते
कभी अधर बन जाते थे
कितना सारा मधु पीकर भी
हम प्यासे रह जाते थे
मैंने रिक्त चषक दिखलाए
तुमने मीना दिखा दिया।
मुझको जीना सिखा दिया।।
प्रखर कामनाओं के उठते
ज्वार तटों तक आते थे
हम लहरों में उतर-उतर कर
जाने कहाँ समाते थे
प्यास बन गई मधु की ज्वाला
वह रस झीना सिखा दिया।
मुझको जीना सिखा दिया।।
जीवन मरुथल बना हुआ था
कोई तीर्थ न पाते थे
और तुम्हारे चरण-चिह्न हम
खोज-खोज रह जाते थे
तुमने मुझको पावन काशी
कहीं मदीना बना दिया।
मुझको जीना सिखा दिया।।
-डा० सन्तकुमार टण्डन ‘रसिक’
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