दीप धरकर जा रहा हूँ मैं तुम्हारे द्वार पर
मांगलिकता की कहानी सातियों से पूछना।
यों बुझे मन से किसी को
टेरना अपराध है
और वह आतिथ्य भी
जैसे अधूरी साध है
तुम लिखो या मत लिखो, पर एक ही अनुरोध है
दर्द कोरे कागजों का हाशियों से पूछना।
बिन बुलाये ही मुझे उस
शाम को आना पड़ा
जो लिखा तपकर उसे
मजबूर हो गाना पड़ा
एक स्वर में किस तरह यह ज़िंदगी गाई गई
यह किसी दिन जंगलों या घाटियों से पूछना।
पत्र की भाषा समर्पण की
निरंतर सहचरी है
इसलिए तो रातरानी
गंध से अब तक भरी है
वाद या प्रतिवाद से कैसे उबारा नाव को
तुम किसी तूफान से या माँझियों से पूछना।
अब तुम्हारी ओर से पाती
मुझे आना नहीं
और अपने गाँव से मुझको
शहर जाना नहीं
किस तरह से दौड़ कर उस द्वार तक जाता रहा
तुम कभी सद्भावना वश डाकियों से पूछना।
-राम अधीर
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