यदि तुम्हारे मिलन की आशा
न मेरे प्राण होती,
क्यों विरह की आग में
मन को जलाता।
यूँ न होता विकल मानस
द्वार पर लगती न आँखें
युग प्रतीक्षा से थके,
मन की न खुलतीं बन्द पाँखें
यदि न श्वासों में तुम्हारे
श्वांस की झनकार होती,
क्यों तुम्हारे आगमन के
गीत गाता।
क्या हुआ यदि दूर है तन,
मन तुम्हारे पास तो है
डूबने वाले सितारे को,
उषा की आस तो है
यदि न तम को बेधने की शक्ति
मेरे प्राण होती,
क्यों अमां की रात में
दीपक जलाता।
थक गये तुमको बुलाते,
नयन के खामोश कम्पन
मीत अब तो लौट आओ,
बोढ खुद ही हो गया मन
यदि हमें एकात्म की आशा
न मेरे प्राण होती,
प्राण पंछी क्यों अकेला
गुनगुनाता।
-सत्येन्दु याज्ञवल्क्य
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