Tuesday, December 08, 2020

भोर में जिस स्वप्न की

भोर में जिस स्वप्न की अनुगूंज तुमको दे सुनाई
वह बने जब गीत संध्या में उसे तुम गुनगुनाना।

धड़कनों के साथ इसकी कर
चुकी हूँ मैं सगाई
अश्रु से सींचा निरंतर
तब कहीं फसलें उगाई
आदमी जो रात भर सोया नहीं संभावना में
मीत! तुम लय-साधना के बाद ही इसको सुनाना।

फूल की जो गंध इसके
साथ थी, मलयज बनी है
हर किरण इसका परस
पाकर प्रखर सूरज बनी है
यह लहर के साथ जब अठखेलियाँ करने लगे तब
तुम इसे समझा बुझाकर, पास में अपने बुलाना।

यह रहा मेरी तरह भावुक
सजल संवेदनामय
किंतु, यह भरता रहा मुझमें
नई संचेतना, लय
हाँ, हमारी ही तरह यह प्यास से आकुल लगेगा
उस समय तुम अंजुरी से नीर थोड़ा सा पिलाना।
यह विहग, टूटा नहीं
आकाश से संबंध इसका
किंतु धरती से सनातन
चल रहा अनुबंध इसका
यह अगर प्रस्थान करने के लिये हठ ठान ले तो
उस समय पलकें भिगोकर प्यार से इसको मनाना।
-निर्मला जोशी

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