सावन-सा तन, फागुन-सा मन,
यह मह-मह सारा घर आंगन
मलयानिल का पा प्रथम परस,
तुम चंपा-सी बौराई हो
तुम कितना रूप नहाई हो!
तुम कितने रूप नहाई हो!
कुछ जानी, कुछ अनजानी,
कुछ जानी-अनजानी
एक बूंद ज्यों भरे हुए हो,
सागर-भर पानी
ये तरल चरण, ये सजल तरण,
यह सहज-सहज-सा संप्रेषण
तुम संतों की संध्या-भाषा,
तुम तुलसी की चौपाई हो
तुम कितना अर्थ नहाई हो,
तुम कितने अर्थ नहाई हो।
मेरे अंतर्मन की भाषा,
प्राणों की प्रीता
श्रुति की कभी ऋचा लगती हो,
मेरी संगीता
यह राग-रंग, यह स्वर सभंग,
यह अंग-अंग की लय-तरंग
तुम रातों की हो बांसुरिया,
तुम प्रातों की शहनाई हो
तुम कितना गीत नहाई हो,
तुम कितने गीत नहाई हो।
कभी केश से, कभी वेश से,
इंद्रधनुष फूटे
कभी भुजाओं के शिखरों से
चंद्र-कला टूटे
तुम स्नेह-कथा, तुम रश्मि-रथा,
इस तम-पुर की तुम ज्योति-प्रथा
जीवन की नूतन बाती पर,
लहरी लौ की अगड़ाई हो
तुम कितना राग,नहाई हो,
तुम कितने राग नहाई हो।।
-डॉ श्रीपाल सिंह क्षेम
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