Tuesday, December 08, 2020

कितनी लहरों के बीच

छुपकर तुमसे पूनम से चाँद-सितारों से
मैं आधी-आधी रात अकेला रोया हूँ
पूछो सागर से सागर की गहराई से
कितनी लहरों के बीच भँवर में खोया हूँ।

मैंने अपने अरमान कुँवारे देखे हैं
आशायें अपनी बाँझ हमेशा ही देखीं
जीवन में कोई प्रात नहीं देखी मैंने
अपने जीवन की साँझ बहुत-सी देखी हैं
पूछो रजनी से रजनी की अँधियारी से
क्या दो पल भी मैं कभी चैन से सोया हूँ।

गिन-गिन कर तारे रात बिताई हैं मैंने
चन्दा ने जब अम्बर से चाँदी बरसाई
रो रोकर सावन बीत गये जाने कितने
कारी बदरी ने घिर कर बुंदियाँ बरसाईं
पूछो कोयल से या कोयल की कूकों से
कितने आँसू गीतों में स्वयं पिरोया हूँ।

पतझड़ ने मेरा साथ दिया है जीवन में
मुड़कर न कभी देखा बेरहम बहारों ने
ठोकर खाकर उठना चाहा फिर भी लेकिन
उठने न दिया मुझको संगीन प्रहारों ने
ये सपने भी निर्मोही अपने हो न सके
जिनको जाने कब से मैं स्वयं संजोया हूँ।

जाने कितने ही शीत गये सिहरन लेकर
औ ताप विरह की ज्वाला देकर चले गये
चपला की तड़कन तड़पन देकर चली गई
आये बसंत जाने कब कैसे चले गये
सब ऋतुयें आईं आकर यूँ ही चली गईं
मैं हँसा किसी पर और किसी पर रोया हूँ।

अब तो खुद से ही बातें करने लगता हूँ
दीवाना हो जाऊँगा ऐसा लगता है
हर साँझ ढले काली-अँधियारी रातों में
मेरे घर में यादों का मेला लगता है
पूछो मुझसे या मेरे एकाकीपन से
इस मेले में मैं ‘रसिक’ अकेला खोया हूँ।
        
-चन्द्रपाल शर्मा

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