Tuesday, December 08, 2020

प्रीति स्वयं मुसकाई होती

उर-प्रदीप में नेह वर्तिका
तुम ने अगर जलाई होती
जगती धन्य-धन्य हो जाती
प्रीति स्वयं मुसकाई होती।

रूप सलोना लख लख मैंने
तन-मन सब कुछ दान कर दिया
अन्तस! रीता लिये फिरा पर
मधु देकर विषपान कर लिया
नेह सुधा की एक बूँद भी
तुमने यदि ढुलकाई होती।
जगती धन्य धन्य हो जाती
प्रीति स्वयं मुसकाई होती।।

हाय हृदय मरुथल-सा सूना
सब झूठे अनुबंध हो गये
अपनेपन की भ्रान्ति भँवर में
सारहीन सम्बंध हो गये
मरुथल के सूने प्रान्तर में
पावस झड़ी लगाई होती।
जगती धन्य धन्य हो जाती
प्रीति स्वयं मुसकाई होती।।

स्नेह-सुरभि के आकर्षण में
मैंने निज मन को बहलाया
मृगतृष्णा-धावन में क्या था
खोया ही पर रंच न पाया
उर-उपवन पतझर में तुमने
प्रीति छटा बिखराई होती।
जगती धन्य धन्य हो जाती
प्रीति स्वयं मुसकाई होती।।

-डा० ब्रजमोहन पाण्डेय ‘विनीत’

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