भारत भूषण जी का एक बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय गीत
ये असंगति जिन्दगी के द्वार
सौ-सौ बार रोई
बाँह में है और कोई
चाह में है और कोई।।
साँप के आलिंगनो में
मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपने भरे कुछ
फूल मुरदों पर चढ़े हैं
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
देह में है और कोई चाह में है और कोई।।
स्वप्न के शव पर खड़े हो
मांग भरती हैं प्रथाएँ
कंगनों से तोड़ हीरा
खा रही कितनी व्यथाएँ
ये कथाएँ उग रही हैं नागफन जैसी ऊबोई
सृष्टि में है और कोई चाह में है और कोई।।
जो समर्पण ही नहीं हैं
वे समर्पण भी हुए हैं
देह सब जूठी पड़ी है
प्राण फिर भी अनछुए हैं
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे संजोई
हास में है और कोई चाह में है और कोई।।
-भारत भूषण
8 comments:
मर्मस्पर्शी गीत।
ये असंगति ज़िंदगी के द्वार सौ सौ बार कोई बाँह में और कोई चाह में है और कोई मंच पर सुना हुआ गीत मैनपुरी के कवि सम्मेलन में वाह वाह बहुत सुंदर पुरानी यादें ताज़ा हो गई
सर आपने ये गीत पढ़वा कर मुझे पुराने दिनों में पहुँचा दिया ।आप और कवि दोनों को नमन ।
प्राण फिर भी अनछुए हैं
माला की तरह शब्दों को पिरोये एक सार्वभौमिक सत्य चित्रित करता गीत।
सोनम
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे संजोई..
भावों की गहराई में उतरकर लिखा गया यह गीत अत्यंत हृदयस्पर्शी!
साझा करने के लिए हार्दिक आभार आ. व्योम सर🙏
बेचैन मन के बहुत सुंदर भावों से भरा गीत । रेणु चन्द्रा
सम्बन्ध और प्रेम एक होना दुर्लभ है । सम्बन्ध मानव निर्मित होते हैं
तो प्रेम ह्रदय की गहराइयों से उत्पन्न ईश्वरीय भाव है ।
कवि ने इस कविता में सम्बन्ध और प्रेम की गहराई बड़े मार्मिक ढंग से
प्रस्तुत की है । आभार आद० व्योम सर।
ये असंगति जिंदगी के द्वार सौ सौ बार सोयी,
जिंदगी की हर बिसंगति युद्ध मे हर बार रोयी।।
गंगा पांडेय "भावुक"
तुम नहीं हो…शिव मंगल सुमन जी का बहुत सुंदर विरह गीत ।रेणु चन्द्रा
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