क्या नहीं कर सकूँगा तुम्हारे लिए,
शर्त ये है कि तुम कुछ कहो तो सही
चाहे मधुवन में पतझार लाना पड़े
या मरुस्थल में शबनम उगाना पड़े
मैं भगीरथ-सा आगे चलूंगा मगर,
तुम पतित पावनी सी बहो तो सही
क्या नहीं कर सकूँगा...
पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढो़
मौन रहने से अच्छा है झुंझला पड़ो
मैं भी दशरथ-सा वरदान दूंगा मगर,
युद्ध में कैकेयी से रहो तो सही
क्या नहीं कर सकूँगा...
हाथ देना न संन्यास के हाथ में
कुछ समय तो रहो उम्र के साथ में
एक भी लांछ्न सिद्ध होगा नहीं,
अग्नि में जानकी-सी दहो तो सही
क्या नहीं कर सकूँगा...
-अंसार कम्बरी
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