पत्र लिखे, पर
भेज न पाया
मीत तुम्हारे पास
अधरों पर
जो बात न आती
लिख दी है इनमें
बिना तुम्हारे
लगता जैसे
साँस नहीं तन में
रोम-रोम में
बिंध जाता है
असहनीय संत्रास
पत्र लिखे पर...
तुम होते तो पुरवाई
बेतरह बहकती है
पावस के घन देख
नदी
जिस तरह थिरकती है
सत्य कहूँ
जीवन के वे क्षण
हो जाते हैं खास
पत्र लिखे पर...
तुम्हें देख
मोगरे महकने लगते हैं
मन में
विद्युत के
प्रवाह-सा अनुभव
होता है तन में
बड़े भोर
भर जाता जैसे
कण-कण में उल्लास
पत्र लिखे पर...
चाहा बहुत
न मन की परतें
मृदुल खोल पाये
मेरे सारे गीत
रह गये
जैसे अनगाये
संकोचों के आगे
फिर-फिर
बौने पड़े प्रयास
पत्र लिखे पर...
-मृदुल शर्मा
5 comments:
ख़त लिखे पर भेज ना पाया…वाह! बहुत सुंदर गीत ।मृदुल जी को बहुत बहुत बधाई । रेणु चन्द्रा
वाह! अत्युत्तम गीत। कितनी ही बातें जो हम कह नहीं पाते है, पत्रों के माध्यम अभिव्यक्त करना थोड़ा संभव हो पाता है। हृदय में उमड़ते प्रेम की उत्तम अभिव्यक्ति।
- प्रगति टिपणीस
पत्रों का वो ज़माना, बहुत खूबसूरत था। कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति, तरल बन कर हृदय में समा जाती थी। इस गीत ने उस समय को पुनर्जीवित कर दिया है। बधाई हो।
सुंदर प्रेमगीत, मन के भाव लिख पाना भी एक कला है। प्रेमभाव व्यक्त करने की झिझक पत्र लेखन में समाप्त हो जाती है। बहुत प्रेम कहानियां इन्ही के माध्यम से पूरी हो पाई हैं। मृदुल शर्मा जी को बहुत बधाई.
बहुत सुंदर गीत।
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