तुम्हारी दृष्टि को छूकर
फिरे दिन
फिर गुलाबों के
तिरी छवियाँ तुम्हारी
सृष्टि के
पावन -प्रसंगों में
घुली फिर ताज़गी
बरसों रहे
बीमार रंगों में
तुम्हारे नाम से जुड़कर
खिले -
चेहरे किताबों के
फिरे दिन फिर ...
तुम्हारा स्पर्श पाकर
तन हवाओं का
हुआ चंदन
लगे फिर देखने सपने
कुँवारी -
खुशबुओं के मन
फिज़ाओं में-
छिड़े चर्चे
सवालों के -जवाबों के
फिरे दिन फिर ...
लिखे ख़त तितलियों को
फूल ने
अपनी कहानी के
खनक कर-
पढ़ गए कुछ छंद
कंगन रातरानी के
तुम्हारी आहटों से
पर खुले
मासूम ख़्वाबों के
फिरे दिन फिर ...
-जय चक्रवर्ती
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