बस भाव का संसार है
ये प्रेम तन के पार है
देह की हर कोशिका में
हो गया है घर उसी का
जिस्म को भी आ गया है
रूह का पूरा सलीका
अब चुप्पियों का नृत्य है
अब मौन की झनकार है
वो सुबह की लालिमा है
साँझ की सुर्ख़ी वही है
वो हवा में खुशबुओं सा
किस दिशा में वो नही है
वो ओस की हर बूंद में
वो सृष्टि का विस्तार है
घुल गया है रक्त में वो
धमनियों में बह रहा है
दूरियों में बस विरह है
ये भरम अब ढह रहा है
रहते हुए इस लोक में
ये पारलौकिक प्यार है
-संध्या सिंह
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