[प्रतिदिन एक चुनिंदा प्रेमगीत ... में आज नवगीतकार अनामिका सिंह का एक प्रेमगीत... कैसे बाँधू मन... ]
एक तुम्हारा साथ सलोना
उस पर ये अगहन
कैसे बाँधू मन!
कुहरा-कुहरा हुईं
दिशाएँ
मौसम छन्द गढ़े
ढाई आखर बाँच
बावरे मन का
ताप बढ़े
तोड़ रही है तंद्रा बेसुध
चूड़ी की खन-खन
कैसे बाँधूँ मन...
परस मखमली धड़कन दिल की
रह-रह बढ़ा रहा
श्वासों की आवाजाही में
संयम आज ढहा
हौले से माथे जब टाँका
है अनमोल रतन
कैसे बाँधूँ मन...
अधरों का उपवास तोड़कर
पल में सदी जिये
रंग धनुक से अंतर्मन में
रिलमिल घोल दिये
हुआ पलाशी अमलतास-सा
पियराया आनन
कैसे बाँधूँ मन
-अनामिका सिंह
26 comments:
अद्भुत शब्द संयोजन, शब्दों की निर्झरिणी बहती बहती सराबोर करती गई।
'कैसे बाँधूँ मन'
बहुत सुंदर,बधाई अनामिका जी
अनामिका जी बहुत सुंदर प्रेम गीत ‘कैसे बाँधूं मन…के लिए हार्दिक बधाई । रेणु चन्द्रा
अनामिका सिंह के इस गीत/नवगीत का मुखड़ा और अंतरों को बहुत ध्यान से पढ़ें... एक साहित्यिक प्रेमगीत किस प्रकार से इतनी शालीनता और सघन भावबोध के साथ लिखा जा सकता है... यह अवश्य देखें... यदि गीत/नवगीत में रुचि है तो...
मर्मस्पर्शी गीत सृजन हेतु बधाई अना।ईश्वर दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति दे।
निवेदिताश्री
मर्मस्पर्शी गीत सृजन हेतु बधाई अना।ईश्वर दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति दे।
निवेदिताश्री
बहुत सुंदर प्रेम गीत........हार्दिक बधाई
विभा प्रसाद
कैसे बाँधूँ मन…इतने खूबसूरत गीत के लिए अनामिका जी को बधाई👏👏
मनमोहक प्रणय गीत...हार्दिक बधाई
बहुत सुंदर तरीक़े से प्रेम संबंधों को उजागर किया है अनामिका जी ने नवगीत में बधाई अनामिका जी
बहुत सुंदर गीत! प्रेमगीतों में विशेष यह दिखता है कि मन संयोग और वियोग दोनों में व्यथित रहता है; यह अलग बात है कि व्यथा मीठी टीस की है या असह्य हुए जीवन की। अनामिका सिंह जी ने मधुर पीड़ा को बख़ूबी चित्रित किया है।
- प्रगति टिपणीस
भावप्रवण, बिम्बात्मक नवगीत!
बहुत ही सुंदर गीत है, बधाई I
अधरों का उपवास तोड़कर बहुत सुंदर भाव साधुवाद आपको अनामिका जी ।
पूनम मिश्रा'पूर्णिमा'
मन की कोमल भावनाओं को कितनी ख़ूबसूरती से शब्दों में व्यक्त किया है अनामिका जी! बहुत बहुत बधाई आपको।
~विद्या चौहान
अद्भुत भाव और लय लिए हुए है अनामिका जी का यह प्रेमगीत। पाठक प्रेम की बेबसी और माधुर्य दोनों सहज ही महसूस करने लगता है।
"उस पर ये अगहन, कैसे बांधू मन "
प्रेम की बहुत सानद्र कोमल और गहरी भावानुभूति का हृदयस्पर्शी गीत. हार्दिक बधाई अनामिका जी!
"उस पर ये अगहन, कैसे बांधू मन "
प्रेम की बहुत सानद्र कोमल और गहरी भावानुभूति का हृदयस्पर्शी गीत. हार्दिक बधाई अनामिका जी!
"उस पर ये अगहन, कैसे बांधू मन "
प्रेम की बहुत सानद्र कोमल और गहरी भावानुभूति का हृदयस्पर्शी गीत. हार्दिक बधाई अनामिका जी!
सुंदर प्रस्तुति
बहुत ही सुन्दर गीत अनामिका जी
सोनम यादव
हिंदी के प्रचार-प्रसार , विशेष तौर पर नवगीत के प्रचार-प्रसार में आपका जो योगदान है,वह अलग से रेखांकित करने का विषय है । इस क्रम में आज आपने ‘ हिंदी के सर्वश्रेष्ठ प्रेमगीत ‘ कड़ी में हमारा प्रेमगीत ‘ कैसे बाँधू मन ‘ अपनी महत्त्वपूर्ण टिप्पणी के साथ प्रस्तुत किया है।
ब्लॉग पर प्रस्तुत इससे पूर्व प्रस्तुत उल्लेखनीय प्रेमगीतों से गीतप्रेमी और पाठक बहुत कुछ सीख समझ सकते हैं ।
अच्छी बात यह है कि यह सारे गीत एक क्लिक की दूरी पर पुनर्पाठ हेतु सदैव उपस्थित मिलेंगे।
इन प्रमुख महत्त्वपूर्ण उपस्थितियों के मध्य ‘ कैसे बाँधूँ मन ‘ को पाना हमारे लिए विशेष महत्त्वपूर्ण है।
आपका और सभी सुधी साहित्यकारों की उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाओं का सादर आभार ।
- अनामिका सिंह
शिकोहाबाद
फिरोजाबाद
283135
9639700081
yanamika0081@gmail.com
सुंदर बिंब विधान..... शब्दों का अद्भुत मेल।
डॉ संजय सराठे
आपके प्रेम का दरिया उन्मुक्त प्रवाहित हो रहा है
किन्तु आप सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में
बँधी रहकर अपने मनके स्त्रोत को स्वतंत्र न छोड़कर
बाँधे रखना चाहती हैं । मन को भी स्वतंत्र छोड़ दीजिएऔर
अपने इस निर्बाध प्रेम में अपने सत्य स्वरूप को पा लीजिए।
सामाजिक सीमाओं को तोड़कर बहता प्रेम और उसपर अंकुश लगाता मन!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !! अनामिका जी !
वाह ! बहुत सुंदर प्रेम-गीत. बहुत-बहुत बधाई आदरणीया जी.
आदरणीय व्योम जी के ब्लॉग पर आज आपका गीत पढ़ा। वहाँ पर टिप्प्णी पोस्ट नहीं कर पाया इसलिए सह शिक्षा वाले पर पोस्ट कर दिया है।
ठीक से पढ़ा-लिखा होते हुए भी इस गीत को दो बार पढ़ा। पहली बार अर्थ ग्रहण और दूसरी भी रस ग्रहण के लिए।
इससे यह तो सिद्ध ही हो जाता कि इसमें कोई न कोई ऐसा रसायन अवश्य है जो अपने आस्वाद से बाँधे रखता है।
शिल्प की कलात्मकता और भाषा की आत्मीयता दोनों मिलकर इसके वस्तु तत्त्व को शास्त्रीय मर्यादाओं से सज्जित कर देती हैं।
अब तक के पढ़े गए गीतों/नवगीतों में ये अलग भी है और विशेष भी। वह इसलिए कि इसकी अंतर्वस्तु में प्रवाहित प्रेम, काम और अध्यात्म की त्रिवेणी इतने धवल और निर्मल जल वाले तटबंधों के साथ केवल देह से ऊपर उठ चुके मन के प्रयाग पर ही बहती मिल सकती है।
-गुणशेखर
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