आज तुमने हाथ में मेहँदी रचाई
दे रही है गीत की आहट सुनाई
रूप ने शृंगार के आयुध सँभाले
और मन के दुर्ग पर नज़रें गड़ा ली
बाण-वर्षा की गई ऐसी नयन से,
एक पल में ढह गई रक्षा-प्रणाली
आज तुमने आँख कुछ ऐसे मिलाई
दे रही है गीत की ...
प्रेम के भंडारगृह की स्वामिनी तुम,
खर्च करती हो मगर बेहद सँभलकर
यह बहुत ही कम हुआ है, जब मिली हो
तुम हया के द्वार से बाहर निकलकर
आज पायल इस अदा से छनछनाई
दे रही है गीत की ...
सात फेरों से घिरी प्राचीर में मन,
सात जन्मों के लिए बंदी बना है
माँग के सिंदूर की भी बेड़ियाँ हैं,
मुक्त होने की कहाँ सम्भावना है
आज तुम भुजपाश की ज़ंजीर लाई
दे रही है गीत की ...
भावनाओं की तरंगें हैं हृदय में,
किस तरह पर गीत में रूपांतरण हो
हैं तुम्हारे पास कुछ ऐसी कलाएँ,
गीत का खुद लेखनी में अवतरण हो
आज जादू की छड़ी ऐसे घुमाई
दे रही है गीत की ...
-बृजराज किशोर ‘राहगीर’
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शृंगार एवं प्रेम का भंडारगृह ����������
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