जाने कैसे भूल गये तुम
वे सारे अनुबंध हमारे
मुझको अब तक याद आते हैं
वे बासंती गीत तुम्हारे
अलकों को मावस कहते थे
आनन को तुम शशि का दर्पण
लहरों-सी थी तन की भाषा
वेद-ऋचाओं जैसा था मन
साँसें महकें जूही चम्पा
चन्दन-वन त्यौहार हमारे
पर अब थके हुए से लम्हे
अपनी-अपनी नियति से हारे
मुझको अब तक...
संध्या छेड़े राग-रागिनी
मध्यम सुर में कोयल बानी
अब भी ठहरा समय वहीं पर
मछली से नयनों में पानी
करवट लेती रात अभी पर
सुबह से रूठे हैं उजियारे
दिन जोगी मन सूना-सूना
कौन किसी की राह निहारे
मुझको अब तक...
मरुथल बसा हुआ है भीतर
बाहर वर्षा जल है भारी
खण्डित प्रणय टीसता ऐसे
हरे पेड़ पर जैसे आरी
विष पीकर भी रही बावरी
मीरा पल-पल श्याम पुकारे
वही बाँसुरी, वही कन्हैया
वो यमुना तट वही किनारे
मुझको अब तक ...
-रंजना गुप्ता
11 comments:
विरह की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
हृदयस्पर्शी कोमल संवेदनाओ की अभिव्यक्ति।
भाव और प्रवाह से भरा विरह गीत।
बहुत सुंदर विरही प्रेम गीत के लिए रंजना जी आपको बधाई । रेणु चन्द्रा
“गुनगुना लो प्यार से/ यह गीत मेरा है तुम्हारा”- वाह! इस सुंदर गीत के लिए बधाई ।
डॉ॰ सुनीता यादव
सरस और कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत प्रेम गीत
खूब खूब शुभकामनाएं आपको
सरस और कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत प्रेम गीत
खूब खूब शुभकामनाएं आपको
सुंदर,मुलायम भाव लिए एक प्यारा गीत। हार्दिक बधाई
।
शर्मिला चौहान
बहुत सुंदर भाव लिए, मुलायम सा गीत। हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएँ।
शर्मिला चौहान
जाने कैसे भूल गए तुम वे सारे अनुबंध हमारे बहुत ही सुंदर गीत
भावों से भरा गीत ।
पूनम मिश्रा'पूर्णिमा'
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