अपने जीवन
सिल से मेरी
कुंठाएँ तुम बांँट रही हो
रक्त शिराओं में
गति पाया
पहले जैसी गांँठ रही हो
मैं रेतीला
मरुथल जब भी
बनता तुम
बागान बनाती
थरहे बीज
दबाहिल1 उगते
ऐसी कुछ
तकनीक लगाती
उपज अनूठी
सिरजन सुतरी
चित ढेरा पर कात रही हो
डंठल होकर
नई कोपलें
तेरे श्रम से मैंने पाई
मुस्कानों के
बीच उमंगें
फलने को जैसे अमराई
हृदय पाँखुरी
भेद रहे जो
उन काँटों को छाँट रही हो
अंधखोह का
निर्जन घर हूंँ
जिसमें तुम उद्दीपक बानी
आलस कोल्हू
धीरे चलकर
बहुत देर में देता घानी
चेतन कर
माटी का पुतला
उसका करती ठाठ रही हो
-रामकिशोर दाहिया
...
1- अँकुराने के पहले गर्मी के कारण काला पड़ा बीज।
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