Saturday, September 03, 2022

उपज अनूठी

अपने जीवन
सिल से मेरी
कुंठाएँ तुम बांँट रही हो
रक्त शिराओं में
गति पाया
पहले जैसी गांँठ रही हो

मैं रेतीला
मरुथल जब भी
बनता तुम
बागान बनाती
थरहे बीज
दबाहिल1 उगते
ऐसी कुछ
तकनीक लगाती
उपज अनूठी
सिरजन सुतरी
चित ढेरा पर कात रही हो

डंठल होकर
नई कोपलें
तेरे श्रम से मैंने पाई
मुस्कानों के
बीच उमंगें 
फलने को जैसे अमराई
हृदय पाँखुरी
भेद रहे जो
उन काँटों को छाँट रही हो

अंधखोह का
निर्जन घर हूंँ
जिसमें तुम उद्दीपक बानी
आलस कोल्हू
धीरे चलकर
बहुत देर में देता घानी
चेतन कर
माटी का पुतला
उसका करती ठाठ रही हो

-रामकिशोर दाहिया
... 

1- अँकुराने के पहले गर्मी के कारण काला पड़ा बीज।
           

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