Saturday, November 25, 2023

गीत तो मैं सुनाता रहूँ

गीत तो मैं सुनाता रहूँ रात भर
शर्त यह है कि तुम मुसकराती रहो
पूर्णिमा के मधुर चन्द्रमा की तरह
मधुभरी रश्मिियों को लुटाती रहो

स्वर न पथ से डिगेंगे किसी भी समय
रागिनी की कभी भी न टूटेगी लय
कण्ठ की बाँसुरी के स्वरों को अगर
निज हृदय वीण से तुम मिलाती रहो
गीत तो मैं सुनाता रहूँ...

साज़ ऐसे मिलें जो न छूटें कभी
वीण के तार मंजुल न टूटें कभी
स्वर मधुर हो उठें गीत के इसलिए
मधु-भरे नैन से मधु पिलाती रहो
गीत तो मैं सुनाता रहूँ...

दर्द है कण्ठ में यह कहो तुम सदा
दर्द की दाद देती रहो सर्वदा
एक ही लक्ष्य पर तीर की नोक हो
मैं बचाता रहू, तुम चलाती रहो
गीत तो मैं सुनाता रहूँ...

साधना की डगर पर अँधेरा न हो
हर शलभ का यहाँ किन्तु फेरा न हो
मैं जलूँ दीप बन प्रेम के पंथ पर 
तुम अगर ज्योति में जगमगाती रहो
गीत तो मैं सुनाता रहूँ...

बस इसी विधि कटें ज़िन्दगी के दिवस
तुम यही ज़िन्दगी भर मनाती रहो
मैं तुम्हारे लिये गीत लिखता रहँ
तुम उन्हें निज हृदय से लगाती रहो
गीत तो मैं सुनाता रहूँ...

-जगदीश प्रसाद सक्सेना 'पंकज'

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