Tuesday, October 10, 2023

मेरे वियोग की आग

मेरे वियोग की आग न तुमको झुलसा दे
ऐसा प्रबंध कर जाऊँगा चलते-फिरते

धरती से रवि को कुछ ऐसा हो गया मोह
प्रातः से संध्या तक मुख तनिक नहीं मोड़ा
सह सकी न रजनी उस स्नेह की सुंदरता
वह बरस पड़ी कर में लेकर तम का कोड़ा
'कर डाले घर की आग भस्म जग को न कहीं'
यह सोच, चला अस्ताचल को बोझिल मन से
लेकिन कलंक लग जाय न प्रेम-प्रतिज्ञा को
इसलिए घोर तम में भी हाथ नहीं छोड़ा
शशि को अपनी सामर्थ्य सौंप दी हरषा कर
'तुम हरो पीर वसुधा की किरणें बरसा कर'
अब गहन-अमावस करे एक दिन को कुछ भी
रवि तो सब कुछ दे गया स्वयं ढलते-ढलते
मेरे वियोग की आग...

बोली प्रभात की किरन दिये की बाती से
"मेरा प्रियतम तुझ पर मँडराया करता है
तेरी इस रूप-शिखा पर ऐसा रीझा है
पल भर को मेरे पास न आया करता है 
अब तुझे बुझा कर माँनूगी, ले ठहर जरा
मेरे सम्मुख तू और न इतरा पाएगी"
लौ बोली, इसमें दोष नहीं कुछ भी मेरा
सामीप्य-लाभ सबके मन भाया करता है
तू दूर स्वयं रहती उससे मानिनी बनी
मैं भर लेती अंक में अतः भामिनी बनी
"बलिहारि देवि, इन शब्दों की गहराई पर"
निर्णय अपना दे गया शलभ जलते-जलते
मेरे वियोग की आग...

-राजेश दीक्षित

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