Saturday, April 20, 2024

तब मिलूँगा

बारिशें न मन छुएँगी, स्वप्न आना छोड़ देंगे 
पतझरों से दुःख न होगा नैन दर्पन तोड़ देंगे 
तब मिलूँगा ! 
जब तुम्हे आशा न होगी, तब मिलूँगा !!

तुम दिखोगी मालिनों से बढ़ती कीमत पर झगड़ती 
फूल जूड़े में नही तुम, थाल में पूजा  के धरती 
हाथ घुटनों पर रखे बिन, बैठना-उठना असम्भव 
गालों के गड्ढे तुम्हारे, हँस हँसाना छोड़ देंगे 
तब मिलूँगा !!

आरती, ढेरों भजन और मंत्र सारे, श्लोक सारे 
इन में भूलोगी मेरे सब, गीत वो अपने  तुम्हारे 
डायरी गीतों की होगी, धूल खाती ताक में और-
गीतों की धुन पर भजन जब, भजनानन्दी जोड़ देंगे 
तब मिलूँगा !!

रूप के सन्ध्या-समय जब, हल्दी का उबटन हँसेगा 
बाग में फोटो खिंचाते, तुम पे कण्टकवन हँसेगा 
बाल कंघी में उलझकर, हाथ में आने लगेंगे-
प्यार के मानक तुम्हारे, मन की कोहनी मोड़ देंगे 
तब मिलूँगा !!

क्या करूँगा, द्वार पर जब पूछ लोगी, कौन हो तुम 
मैं अभागों-सा हँसूगा और तुम अनजान गुमसुम 
बीते दिन दस्तक न देंगे, देखकर मुझको अचानक -
मेरी यादों के पखेरू, छत ही तुम्हारी छोड़ देंगे 
तब मिलूँगा !!
       
        -रमेश शर्मा

Tuesday, March 12, 2024

लड़ते लड़ते प्यार हो गया

 गिला, शिकायत, शिकवा, चुप्पी, 
गुस्सा सब बेकार हो गया
इतना लड़ती थी मैं उससे 
लड़ते-लड़ते प्यार हो गया

ऐंठी मैं तो ऐंठा वो भी
बात-बात पर कितने ताने
कहना-"कभी नहीं मिलना अब"
पर मिलने को किये बहाने
खिजाँ देखती रही मगर अब 
ये गुलशन गुलज़ार हो गया
इतना लड़ती थी मैं ... 

क्या, कैसे, कब हुआ बताओ
पूछ रहा कितने सवाल था
मेरे आँसू टपके ही थे
लेकिन उसका बुरा हाल था
गुस्सा-गिला, शिकायत, शिकवा 
पानी आखिरकार हो गया
इतना लड़ती थी मैं... 

जितना दिल में प्यार भरा हो
उतना ही गुस्सा भी आये
दिल तो इसे समझ ले लेकिन
जब दिमाग सोचे, चकराये
पर दिमाग को हरा दिया तो 
दिल का हर त्यौहार हो गया
इतना लड़ती थी मैं ... 

बाल्मीकि ने "मरा-मरा" कह
जैसे अपना राम पा लिया
उसी तरह उल्टा-पुल्टा कर
मैंने भी घनश्याम पा लिया
जिसे समझती थी मैं बाधा 
वो मेरी रफ़्तार हो गया
इतना लड़ती थी मैं ... 

 -अर्चना पंडा

Monday, March 11, 2024

कोई असर नहीं रितुओं की..

कोई असर नहीं रितुओं की
मीठी-मीठी बातों का
लोक लाज के पहरे बैठे
डर है उल्कापातों का

कुहू-कुहू कर कोयल बोले
झूम रही है अमराई
पीली सरसों नाचे छमछम
दूर खड़ी है पुरवाई
किस पर असर नहीं बासंती,
मौसम की सौगातों का
किन्तु तुम्हारा मन है जैसे
चिकना तन हो पातों का
कोई असर नहीं रितुओं की...

चुप रहकर आमंत्रित करती
रही चाँदनी शरमीली
प्रेम-पत्र लेकर आयी है
कासिद पछुआ बरफीली
मन तो एकाकार हो चुका
होना है दो गातों का
और भला क्या हो सकता है
सर्द गुलाबी रातों का
कोई असर नहीं रितुओं की...

घूँघट खोल दिये कलियों ने
भँवरों ने मधुरस घोला
चरम-मिलन के पलड़ों पर फिर
बजन प्यार का भी तोला
बैर हुआ तेरे उसूल से
मेरे इन जजबातों का
खूँटी पर लटकी है लज्जा
क्या डर रिश्ते-नातों का
कोई असर नहीं रितुओं की...

-प्रदीप पुष्पेन्द्र

Thursday, February 15, 2024

टूट-टूट कर प्यार किया बस

बिना कहे तुमने मुझसे क्यों
टूट-टूट कर प्यार किया बस

अलबत्ता तुम चले नहीं संग
रात अकेले ही है काटी
लेकिन सच है मैंने भी तो
चिंताएं ही तुमसे बाँटी
समाधान  जीते-जीते
मैंने तुमसे तकरार किया बस
टूट-टूट कर ...

दाना-पानी साथ-साथ में,
हँसी-ठिठोली इतना जाना
कल के सारे स्वप्न सुहाने
तुमने बस यूँ ही पहचाना
नींव बिछाती थकी सदा मैं,
मन में उठी गुबार जिया बस
टूट-टूट कर ...

बदसूरत पहलू होते तो
कन्नी काट-काट तुम जीते
अमृत भरा पराग स्वप्न धर
निष्ठा से लम्हों में रीते
तुमको प्रेम पता था केवल
मैंने जब पतवार जिया बस
टूट-टूट कर ...

दुनियादारी की रवायतें,
मशगूली भी कब भाती थी
लेकिन घर की दीवारों में
ही भर नींद तुम्हें आती थी
लड़ें-भिड़ें हम पास-पास ये
ही तुमने अधिकार जिया बस
टूट-टूट कर ...

-शीला पांडे

Tuesday, December 19, 2023

खुले रहेंगे इन पलकों के द्वार

खुले रहेंगे इन पलकों के द्वार 
चले आना
नींद के आने से पहले
चाँद के जाने से पहले।

इधर लोचनों में उमड़ा है
आँसू का सागर
उधर तुम्हारे द्वार उठ रहे
शहनाई के स्वर
अंतिम दर्शन के हित 
अंतिम बार चले आना
पालकी उठने से पहले
कि पीहर छुटने से पहले
खुले रहेंगे इन पलकों के...

बिना भ्रमर के किसी कली का
खिलना ही क्या है
पतझर में प्रेमी हृदयों का
मिलना ही क्या है
बीत न जाए कहीं बसंत बहार? 
चले आना
फूल के खिलने से पहले
धूल में मिलने से पहले
खुले रहेंगे इन पलकों के...

आज मरण शैया पर हैं
मन की अभिलाषाएँ
फिर भी साथ न छोड़ रही हैं
झूठी आशाएँ
द्वार खड़े चारों कहार तैयार? 
चले आना
श्वास के ढलने से पहले
चिता में जलने से पहले
खुले रहेंगे इन पलकों के...

-सुरेंद्र मोहन मिश्र

Saturday, December 09, 2023

तितलियों ने

तितलियों ने दिए रंग मुझे 
और चिड़ियाँ चहक दे गईं
प्यार की चंद घड़ियाँ मुझे 
फूल जैसी महक दे गईं

बारिशों ने इशारा किया
साथ आओ ज़रा झूम लो
देख लो रूप अपना खिला
आईने को ज़रा चूम लो
ये हवाएँ, घटाएँ सभी 
मुझको अपनी बहक दे गईं
तितलियों ने... 

ना को हाँ में बदलने में तुम 
वाक़ई एक उस्ताद हो
सारी दुनिया अदृश हो गई
जबसे तुम मुझ में आबाद हो
भावनाएँ भी समिधाएँ बन 
मीठी-मीठी दहक दे गईं
तितलियों ने... 

चैन की सम्पदा सौंपकर
अनवरत इक तड़प को चुना 
याद का एक स्वेटर यहाँ
नित उधेड़ा दुबारा बुना
लग रहा है कि लहरें मुझे 
आज अपनी लहक दे गईं
तितलियों ने... 

- डा० सोनरूपा 

जब से यह देखे हैं बतियाते नैन

जब से यह देखे हैं बतियाते नैन
फूलों की बरसा-से बरसाते बैन
डोल गया, डोल गया, डोल गया मन
जीवन में आया नयापन।

प्यार भरे मौसम की भाषा है मौन
अन्तर-पट जान गया, किसका है कौन
एक-दूसरे को आओ नैन मूँद देखें
जंजाली दुनिया को एक ओर फेकें
प्राण हमें एक मिला, गूँगे दो तन
जीवन में आया नयापन...

साँसों में घुलने लगी चम्पा की गंध
सदियों के टूट गए सारे अनुबंध
कल्पना के पंखों से आसमान छूलें
और कभी भावों के झूले पे झूलें
होने न पाए कभी प्रीति अपावन
जीवन में आया नयापन...

अलकों संग खेल रही चंदनी बयार
झुकी-झुकी पलकों में मुस्काए प्यार
फूल से कपोल हुए शर्म से गुलाबी
मदमाते नैन लगें जन्म के शराबी
कर रहा है तुम पे 'पवन' तन-मन अर्पन
जीवन में आया नयापन...

-पवन बाथम

अब तुम्हारा प्यार लेकर

अब तुम्हारा प्यार लेकर क्या करूँगा
पीर में कोई तपन बाक़ी नहीं है
आज तक परछाइयों का हाथ थामें
ज़िन्दगी जाने किधर चलती रही है

आस की अमराइयों की छाँव में ही
कामना ये ही कहीं पलती रही है
मैं निरी मनुहार लेकर क्या करूँगा
बात में कोई बचन बाकी है
अब तुम्हारा प्यार लेकर ...

आज दुनिया के सहेजे बन्धनों में
बढ़ रही है द्वंदता, कटुता, विषमता
भावनाओं से भरे संसार भर में
निकटता ही साथ ले आती विलगता
मैं निरा आकाश लेकर क्या करूँगा
है तिमिर, कोई किरन बाक़ी नहीं है
अब तुम्हारा प्यार लेकर क्या करूँगा
अब तुम्हारा प्यार लेकर ...

मैं चलूँ कब तक, कहाँ तक बिजन पथ ये
शूल हैं, कोई पथिक पाता नहीं हूँ
मैं किसे समझूँ अजाने पथ में रहबर
सब भ्रमित हैं क्यूँ समझ पाता नहीं हूँ  
मैं सहज अभिसार पाकर क्या करूँगा
वन्दना तो है नमन बाक़ी नहीं है
अब तुम्हारा प्यार लेकर क्या करूँगा
अब तुम्हारा प्यार लेकर ...

-शैलेन्द्र कुलश्रेष्ठ

Thursday, November 30, 2023

थकन मिटाएँगे

नदी किनारे
चलो सजन
हम थकन मिटाएँगे 

झरने लगे नाचने-गाने
चट्टानें शर्माईं
बर्फीले टीले पिघले हैं
वनराई मुस्काई
उछल रहे हैं उधर फुहारे
तपन मिटाएँगे 
नदी किनारे... 

चन्दन वन से चलीं हवाएँ
आने वाली हैं
धुंध घुटन से भरी खिजाएँ
जाने वाली हैं
मधु पराग के सेवाकर्मी
चरन दबाएँगे 
थकन मिटाएँगे
नदी किनारे... 

ऋतुएँ लगी बदलने कपड़े
गहने बदलेंगी
धानी चूनर ओढ़
खेत की
फसलें मचलेंगी
ऋतुओं के ऋतुराज सजन
आभरण लुटाएँगे 
नदी किनारे... 

-डॉ. मनोहर अभय  

Sunday, November 26, 2023

एक जीवन जी गया

एक जीवन जी गया मैं भी, 
तुम्हारे साथ देखो,
मुदित मन मधु पी गया मैं भी,
तुम्हारे साथ देखो

थीं बहुत सी वर्जनाएँ 
सजग करती सी कथाएँ
किन्तु हर प्रतिबन्ध पर 
विजयी हुई थीं भावनाएँ
लोक की उन रीतियों का, 
कुछ पुरातन नीतियों का
अतिक्रमण कर ही गया मैं भी, 
तुम्हारे साथ देखो
एक जीवन जी गया...

जब असंगत संधियों में 
छिपा इक अनुताप-सा है
हृदय-पथ का अनुसरण फिर 
क्यों जगत में पाप-सा है
किन्तु जग-संवेदना पर, 
दबा कर निज वेदना को
होंठ अपने सी गया मैं भी,
तुम्हारे साथ देखो
एक जीवन जी गया ...

समय क्या कर भी सकेगा, 
हृदय के अनुबंध ढीले
गरल पीने की कथा, 
कहते रहेंगें कंठ नीले
किन्तु आकुल निलय से फिर, 
आस की लघु दीपिका में
जला इक बाती गया मैं भी,
तुम्हारे साथ देखो
एक जीवन जी गया...

-अमिताभ त्रिपाठी अमित

बाँच गीतगोविंद नेह का...

बाँच गीतगोविंद नेह का
तुम कितने बौराये 
तन की छत पर झरे रात भर
महुआ गदराये 

एक बार अनुवादित कर दो
देहग्रंथ के छंद
उचित और अनुचित में उठता
मिट जाए फिर द्वंद्व
व्योम बराबर तृष्णा की ये
छागल रिस जाए
बाँच गीतगोविंद नेह का...

संस्पर्शों के बल्कल पहने
मिली हंसिनी रातें
आज चलो चरितार्थ करें हम
वात्सायन की बातें
अंग-अंग पर काम समीक्षा
फिर से लिक्खी जाए
बाँच गीतगोविंद नेह का...

मौन जहाँ संवाद बोलते
तम भी लगता उत्तम
ज्ञान और वैराग्य जहाँ पर
हो जाते हैं अक्षम
ये नूतन विज्ञान प्रेम से
नाहक ही डरवपाए

-उमाश्री

Saturday, November 25, 2023

खिलखिलाती

खिलखिलाती 
धूप है मन की सतह पर
एक कुहरीली सुबह है
और तुम हो

इस शिशिर में भी
सुखों के भार से
कंधे झुके हैं
जो नयन थे
सोंठ जैसे
पुन: अदरक हो चुके हैं
दृष्टि में नव-उत्सवों के 
रंग भरती 
आज रंगीली सुबह है
और तुम हो

पढ़ चुकी है
रात हरसिंगार की
सारी कहानी
जी रही
ईंगुर सजाकर 
नये जीवन की निशानी 
इस प्रणय को भोर का
तारा दिखाती 
एक सपनीली सुबह है
और तुम हो

याद वे दिन
आ रहे हैं
तुम नहीं थे, बस शिशिर था
बीतता था हर प्रहर
मन में कहीं पर
स्वयं थिर था
चाय की हैं चुस्कियाँ
अब अक्षरों पर
साथ में गीली सुबह है
और तुम हो

-राहुल शिवाय


गीत तो मैं सुनाता रहूँ

गीत तो मैं सुनाता रहूँ रात भर
शर्त यह है कि तुम मुसकराती रहो
पूर्णिमा के मधुर चन्द्रमा की तरह
मधुभरी रश्मिियों को लुटाती रहो

स्वर न पथ से डिगेंगे किसी भी समय
रागिनी की कभी भी न टूटेगी लय
कण्ठ की बाँसुरी के स्वरों को अगर
निज हृदय वीण से तुम मिलाती रहो
गीत तो मैं सुनाता रहूँ...

साज़ ऐसे मिलें जो न छूटें कभी
वीण के तार मंजुल न टूटें कभी
स्वर मधुर हो उठें गीत के इसलिए
मधु-भरे नैन से मधु पिलाती रहो
गीत तो मैं सुनाता रहूँ...

दर्द है कण्ठ में यह कहो तुम सदा
दर्द की दाद देती रहो सर्वदा
एक ही लक्ष्य पर तीर की नोक हो
मैं बचाता रहू, तुम चलाती रहो
गीत तो मैं सुनाता रहूँ...

साधना की डगर पर अँधेरा न हो
हर शलभ का यहाँ किन्तु फेरा न हो
मैं जलूँ दीप बन प्रेम के पंथ पर 
तुम अगर ज्योति में जगमगाती रहो
गीत तो मैं सुनाता रहूँ...

बस इसी विधि कटें ज़िन्दगी के दिवस
तुम यही ज़िन्दगी भर मनाती रहो
मैं तुम्हारे लिये गीत लिखता रहँ
तुम उन्हें निज हृदय से लगाती रहो
गीत तो मैं सुनाता रहूँ...

-जगदीश प्रसाद सक्सेना 'पंकज'

Thursday, November 23, 2023

तब से है मन चन्दन-चन्दन

दो पाँव अलक्तक गढ़े जड़े-
रुनझुन मेरे आँगन आये
तब से साँसें सौरभ-सी हैं 
तब से है मन चन्दन-चन्दन

वह द्रवित अगन से धवल वरन !
पल में हिय को हरते चितवन !
दो मंगल कलश नयन-युग के
कंचन मन कंचन अंतर्मन !
वे अधर लिए संगीत-सुमन 
मेरे द्वारे जो मुस्काये-
तब से जीवन का रूप हुआ 
इस पल उत्सव उस पल उपवन
तब से है मन चन्दन-चन्दन...

वे पीड़ान्तक मृदु-मधुर हास !
कामना जगाते ललित लास !
वे सुख-दुःख और सितासित में-
समभाव सहज समरस उजास !
दो नैन गहन घन बन कर जो 
जीवन के अम्बर में छाये-
तब से हैं शीतल झील बने 
मेरे तापित शापित तन-मन
तब से है मन चन्दन-चन्दन...

यह गुण सूनापन हरने का,
वह गुण घर को घर करने का,
उनके गुण कारण बन जाते-
अंतर की व्यथा बिसरने का,
दो हाथ मृदुल मेहँदी रंजित 
जाते जो मुझको महकाये -
तब से मुरझे जीवन-वन पर 
झरता जाये सावन-भावन
तब से है मन चन्दन-चन्दन...

-कृष्ण बिहारी शर्मा

चूड़ी का टुकड़ा

आज अचानक सूनी-सी संध्या में
जब मैं यों ही मैले कपड़े देख रहा था
किसी काम में जी बहलाने,
एक सिल्क के कुर्ते की सिलवट में लिपटा
गिरा रेशमी चूड़ी का
छोटा-सा टुकड़ा,
उन गोरी कलाइयों में जो तुम पहने थीं,
रंग भरी उस मिलन रात में।

मैं वैसा का वैसा ही
रह गया सोचता
पिछली बातें
दूज-कोर से उस टुकड़े पर
तिरनें लगी तुम्हारी सब लज्जित तस्वीरें,
सेज सुनहली,
कसे हुए बन्धन में चूड़ी का झर जाना,
निकल गई सपने जैसी वे मीठी रातें,
याद दिलाने रहा
यही छोटा-सा टुकड़ा।

-गिरिजा कुमार माथुर

मन वीणा का तार बजे

आज अगर तुम आ जाओ तो
मन वीणा का तार बजे 

मन की तपती धरती पर फिर
प्रेम फुहार करो तुम
पथराई आँखों में खुशियों की
सौगात धरो तुम 
शशि की निर्मल स्वच्छ चाँदनी में
मधुरिम शृंगार सजे 
आज अगर तुम आ जाओ...

मीत प्रीत का गीत स्वरमयी
मन ही मन हम गायें
ना मैं बोलूँ, ना तुम बोलो
दोनों चुप हो जायें 
सुख के सागर में खो जायें
चाहे ये संसार तजे 
आज अगर तुम आ जाओ...

-शरद तैलंग

डगर डगर नगर नगर

डगर डगर नगर नगर, गली गली शहर शहर
हरेक राह-गाह में, पुकारता चला गया।

उतार में न तू मिली, न तू किसी चढ़ाव में
न हमसफर बनी न तू, मिली किसी पड़ाव में
न मंजिलों न मरहलों, न मोड़ पर न गाम पर
न हाट में न बाट में, न गैल में न गाँव में
यहाँ नहीं, वहाँ नहीं, तुझे कहाँ कहाँ नहीं
उमर के आर पार तक, निहारता चला गया।
डगर डगर.................... ।।

तुम्हारी उस निगाह में, क्यों शोखी थी, सऊर था
अदाओं का हुजूम था, क्यों शर्म थी, सुरूर था ?
वो वक्त का बहाव था, या उम्र का कुसूर था
कोई-न कोई बात थी, वो कुछ-न-कुछ जुरूर था
उसी वफा की चाह में, उसी हसीं गुनाह में
मैं एक पल में इक उमर, गुजारता चला गया।
डगर डगर.................... ।।

ये कौन-सी तलाश है, जो चल रही है आज भी
ये कौन-सी है प्यास जो कि, छल रही है आज भी
ये कौन-सी वो भूल है, जो खल रही है आज भी
मगर ये कौन-सी है आस, पल रही है आज भी
इसी के ऐतबार पर, जनम की रहगुज़ार पर
मैं हर कदम पै मौत को, नकारता चला गया।
डगर डगर.................... ।।

-विनोद मंडलोई

जब घिरे बदली

जब घिरे बदली, बजे मुरली कहीं, 
उस रात रंगिनि!
प्यार में गलहार बनकर साथ देना

चाँदनी चूनर न हो मैली इसी से,
स्नेह के दीपक सजाता,
हो न बोझिल मन तुम्हारा, मैं इसी से
प्रीत की वीणा बजाता 
जब उतारे तार मन का भार तो उस रात मोहिनि!
राग की झंकार बनकर साथ देना
जब घिरे... 

कह नही सकते जिन्हें हम जानकर भी 
शेष वे कितनी व्यथाएँ,
और सुननी है, सुनानी हैं मुझे भी
अश्रु की कितनी कथाएँ,
जब उठाये भीगता आँचल निशा, उस पल सुहासिनि !
भोर का गुंजार बन कर साथ देना 
जब घिरे... 

मीत ! पर सबकी यहाँ राहें अलग हैं,
इसलिये सब दूर होते,
दो घड़ी हँस खेलने पर भी बिछुड़ने,
लिये मजबूर होते 
जब करे आकुल तुम्हारी याद, 
तो उस पल सभाषिनि!
स्वप्न का सिंगार बनकर साथ देना 
जब घिरे बदली बजे मुरली कहीं, 
उस रात रंगिनि !
प्यार में गलहार बनकर साथ देना।

-कुंदन लाल उप्रेती

तुम नहीं होते अगर

तुम नहीं होते अगर
जीवन विजन-सा द्वीप होता।

मैं किरण भटकी हुई-सी थी तिमिर में,
काँपती-सी एक पत्ती ज्यों शिशिर में,
भोर का सूरज बने तुम, पथ दिखाया,
ऊष्मा से भर नया जीवन सिखाया,
तुम बिना जीवन निठुर
मोती रहित इक सीप होता।

चंद्रिका जैसे बनी है चंद्र रमणी,
प्रणय मदिरा पी गगन में फिरे तरुणी,
मन हुआ गर्वित मगर फिर क्यों लजाया,
उर-सिंहासन पर मुझे तुमने सजाया,
तुम नहीं तो यही जीवन
लौ बिना इक दीप होता।

शुक्र का जैसे गगन में चाँद संबल,
मील का पत्थर बढ़ाता पथिक का बल,
दी दिशा चंचल नदी को कूल बन कर,
तुम मिले किस प्रार्थना के फूल बन कर,
जो नहीं तुम, यह हृदय
प्रासाद बिना महीप होता।

-मानोशी चटर्जी

मनुहार

खूबसूरत 
दिन, पहर, क्षण,
पल, हुआ
तुम मिले तो
सच कहें
मंगल हुआ!

पुण्य जन्मों का फला,
तो छट गयी
मन की व्यथा
जिंदगी की पुस्तिका में,
जुड़ गयी
नूतन कथा
ठूँठ-सा था मन
महक,
संदल हुआ।

वेद की पावन 
ऋचा या,
मैं कहूँ तुम हो शगुन
मीत! मन की 
बाँसुरी पर
छेड़ते तुम प्रेम धुन
पा, तुम्हें यह 
तप्त मन
शीतल हुआ।

लाभ-शुभ ने 
धर दिए हैं
द्वार पर दोनों चरण
विश्व की सारी 
खुशी आकर करे
अपना वरण 
प्रश्न मुश्किल
जिंदगी
का हल हुआ।

-मनोज जैन मधुर

जीवन सुहाना कर दिया

प्रेम सम्बंधों को 
नव पहचान देकर 
आपने जीवन सुहाना कर दिया

पा नवल मधुमास 
अमराई महकती जिस तरह 
सुबह पाकर मौन 
चिड़िया है चहकती जिस तरह 
उस तरह मुझको नये
अरमान देकर 
आपने जीवन...

मिल गयी है भोर 
मेरी कपकपाती चाह को 
आपने आकर मिटाया 
ज़िन्दगी के स्याह को 
चाहतों को इक नया 
उन्वान देकर 
आपने जीवन...

हो गयी हूँ आज कुसमित 
आपकी पाकर छुवन
बँध गयी हूँ आपसे 
पर मिल गया मुझको गगन 
ढाई आखर बोल 
का सम्मान देकर 
आपने जीवन...

-गरिमा सक्सेना

फिर पूजन के शंख बजे

फिर पूजन के शंख बजे 
फिर खनक उठे कंगन
जाने किस के बोल 
भोर की चुप्पी तोड़ गये

अलसाये सुमनों में फिर से 
मधु मुस्कान भरी
गूँज उठी मन्दिर- मस्जिद में 
बातें ज्ञान भरी
नरम अँगुलियाँ लड़ बैठीं 
फिर लौह बर्तनों से
बैलों की गर्दन में घुँघरू ने 
फिर तान भरी
दूर कहीं हलवाहे ने 
फिर छेड़ी तान मधुर
लम्बी धुन में चलते-चलते 
अनगिन मोड़ गये
फिर पूजन के...।

आँगन में चितचोर कन्हैया 
फिर से मचल पड़े
पनघट पर राधाओं के पग 
फिर से फिसल पड़े
बाबाजी का राम-राम जप 
फिर से शुरू हुआ
कोलाहल के बीच परिन्दे 
फिर से निकल पड़े
द्वारे पर दो आँसू टपके 
विरह वेदना के
जाने वाले आने के 
फिर वादे छोड़ गये
फिर पूजन के...।

सोना, फिर जगना, फिर हँसना, 
फिर आहें भरना
जीवन की सच्चाई है तो 
फिर कैसा डरना
सूरज की नव किरणें हमसे 
फिर से कहती हैं
नवजीवन के लिए आज है 
फिर से कुछ करना
कदम चूमती रही सफलता 
अज्ञानी उनके
जो अपने जीवन को 
संघर्षों से जोड़ गये
फिर पूजन के...।

-डा. अशोक अज्ञानी

गंगा के तट पर जब उस निशि

गंगा के तट पर जब उस निशि
चन्द्र किरण मुसकाती थी,
प्रथम मिलन की मधुमय बेला
रस की धार बहाती थी।

जीवन भर का क्लेश मिट गया
देखा जभी रूप अपरूप;
प्रेम-पाश में बँधे जब कि हम
मदमाती अधराती थी।

सारा जग सुधिहीन पड़ा था,
दोनों हमीं रहे थे जाग!
विस्मृति की मादक घड़ियों में
सुलग उठी जीवन की आग।

प्रेम-अश्रुकण गिरकर कितने
सैकत पर प्रियमाण हुए!
वही हमारा आत्म-समर्पण
बना करुण गीतों का राग।

-रामावतार यादव 'शक्र'
(नवम्बर, 1932)

Friday, November 17, 2023

रजनीगंधा रूप तुम्हारा

रजनीगंधा रूप तुम्हारा
बसा हुआ तन-मन में 

देह न बासी हुई कभी भी,
गात न कुम्हलाया 
मुस्काता श्वेताभ बाँकपन,
यौवन पर छाया 
जब-जब गंध बिखेरी तुमने,
धूम मची उपवन में 
रजनीगंधा रूप तुम्हारा...

अनजाना मधुमास पास,
आ-आकर ठिठक गया 
अंग-अंग की लाज तुम्हारी,
गढ़ती मिथक नया 
देखा जब, तब वैसे पाया 
जीवन के दरपन में 
रजनीगंधा रूप तुम्हारा...

ऐ मेरे पल-छिन के साथी,
साथ-साथ मुरझाना
रंग-रंग निखरें कण-कण के,
जब तक साथ निभाना
तुम-सा मिला न कोई दूजा,
ढूँढ़ थका घर-वन में 
रजनीगंधा रूप तुम्हारा
बसा हुआ तन-मन में।

-उमा प्रसाद लोधी

पा पत्र प्रेम का

पा पत्र प्रेम का यह पहला
मैं पागल-पागल फिरती हूँ 
छूता है मन नीलाभ गगन
फिर बादल-बादल फिरती हूँ 
अतुलित निधि उर संचित कर, 
मैं नर्तन-नर्तन करती हूँ, 
स्वप्निल कोमल स्पर्श तेरा, 
पा आँचल-आँचल छिपती हूँ।   

जब प्रेम-स्रोत फूटा मन में, 
आशा का उपवन बढ़ा-पला,
उल्लास हिंडोले चढ़ झूला, 
मल्हार गीत स्वर बह निकला   
शृंगार आभूषण सब तज कर, 
धानी चुनर यह ओढ़ चला,
हैं इंद्रधनुष के रंग भले
तन प्रीत की रीत के रंग घुला।
 
भावों के कोमल पंख लगा, 
अवनि की सघन हरियाली में,
सहेज पिटारी प्रेम अक्षर की, 
हिय बटोर भोर की लाली में
अल्हड़ उपालंभ शब्द भर, 
कर उँडेल कलम मतवाली में 
आँसू स्याही से लिखी विरह
पाती नव छंद सयाली में।

-डा. आरती लोकेश

Tuesday, October 24, 2023

क्या नहीं कर सकूँगा

क्या नहीं कर सकूँगा तुम्हारे लिए,
शर्त ये है कि तुम कुछ कहो तो सही

चाहे मधुवन में पतझार लाना पड़े
या मरुस्थल में शबनम उगाना पड़े
मैं भगीरथ-सा आगे चलूंगा मगर,
तुम पतित पावनी सी बहो तो सही
क्या नहीं कर सकूँगा...

पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढो़
मौन रहने से अच्छा है झुंझला पड़ो
मैं भी दशरथ-सा वरदान दूंगा मगर,
युद्ध में कैकेयी से रहो तो सही
क्या नहीं कर सकूँगा... 

हाथ देना न संन्यास के हाथ में
कुछ समय तो रहो उम्र के साथ में
एक भी लांछ्न सिद्ध होगा नहीं,
अग्नि में जानकी-सी दहो तो सही
क्या नहीं कर सकूँगा... 

-अंसार कम्बरी

Friday, October 20, 2023

छेड़ गयी वह कोकिल-कंठी

छेड़ गयी वह कोकिल-कंठी
एक  सुरीले  गान  से
ठूँठ हृदय को हरा कर गयी
एक अनसुनी तान से

मुख पर विषाद की कोई
रेख न भय की छाया
उसकी उज्ज्वल चितवन से
मावस मन घबराया
और बहुत हैरान हुआ मैं
जोगनिया  मुस्कान  से
छेड़ गयी वह... 

प्यास, स्वार्थ  के जग की मुझमें
प्यास न मीरा-सी
बेर कहाँ मैं खट्टा हूँ
कहाँ भक्ति शबरी की
कौन तार बज गया, 
न बजता संगीतज्ञ महान से
छेड़ गयी वह... 

मैं कलियुग का सच हूँ, 
सच का निपुण प्रवक्ता-सा
आँखें तो टपकें पर
हिरदय पुरइन पत्ता-सा
अक्ल खुली क्या मुक्त हुआ-
मन दुनिया के सामान से
छेड़ गयी वह... 
        
-वीरेन्द्र आस्तिक

Monday, October 16, 2023

मौन निमंत्रण

स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
चकित रहता शिशु-सा नादान
विश्व की पलकों पर सुकुमार
विचरते हैं जब स्वप्न अजान,
न जाने, नक्षत्रों से कौन
निमंत्रण मुझे भेजता मौन !

सघन मेघों का भीमाकाश
गरजता है जब तमसाकार
दीर्घ भरता समीर निःश्वास
प्रखर झरती जब पावस चार
न जाने, तपक तड़ित में कौन
मुझे इंगित करता तब मौन !

देख वसुधा का यौवन भार
गूंज उठता है जब मधुमास
विधुर उर के-से मृदु उद्गार
कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास
न जाने, सौरभ के मिस कौन
संदेशा मुझे भेजता मौन !

क्षब्ध जल शिखरों में जब बात
सिन्धु में मथकर फेनाकार
बुलबुलों का व्याकुल संसार
बना बिथुरा देती अज्ञात
उठा तब लहरों से कर कौन
न जाने, मुझे बुलाता मौन !

स्वर्ण, सुख, श्री, सौरभ में भोर
विश्व को देती है जब बोर
विहग-कुल की कल कंठ हिलोर
मिला देती भू-नभ के छोर
न जाने, अलस पलक दल कौन
खोल देता तब मेरे मौन !

तुमुल तम में जब एकाकार
ऊँघता एक साथ संसार
भीरु झींगुर कुल की झनकार
कँपा देती तंद्रा के तार
न जाने, खद्योतों से कौन
मुझे पथ दिखलाता तब मौन !

कनक छाया में, जब कि सकाल
खोलती कलिका उर के द्वार
सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल
तड़प, बन जाते हैं गुंजार
न जाने, ढुलक ओस में कौन
खींच लेता तब मेरे मौन !

बिछा कार्यों का गुरुतर भार
दिवस को दे सुवर्ण अवसान
शून्य शय्या में, श्रमित अपार
जुड़ाती जब मैं आकुल प्राण
न जाने मुझे स्वप्न में कौन
फिराता छाया जग में मौन !

न जाने कौन, अये द्युतिमान!
जान मुझको अबोध, अज्ञान
सुझाते हो तुम पथ अनजान
फूँक देते छिद्रों में गान
अहे सुख-दुख के सहचर मौन!
नहीं कह सकती तुम हो कौन!!

-सुमित्रानन्दन पंत

Friday, October 13, 2023

रेत पर नाम लिखने

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा
एक आई लहर कुछ बचेगा नहीं
तुमने पत्थर का दिल हमको कह तो दिया
पत्थरों पर लिखोगे, मिटेगा नहीं

मैं तो पतझर था फिर क्यों निमंत्रण दिया
ऋतु बसंती को तन पर लपेटे हुए
आस मन में लिए, प्यास तन में लिए
कब शरद आई पल्लू समेटे हुए
तुमने फेरी निगाहें, अँधेरा हुआ
ऐसा लगता है सूरज उगेगा नहीं
रेत पर ........

मैं तो होली मना लूँगा सच मान लो
तुम दिवाली बनोगी ये आभास दो
मैं तुम्हें सौंप दूँगा तुम्हारी धरा
तुम मुझे मेरे पंखों का आकाश दो
उँगलियों पर दुपट्टा लपेटो न तुम
यूँ करोगी तो दिल चुप रहेगा नहीं
रेत पर ........

आँख खोलीं, तो तुम रुक्मणी-सी दिखीं
बंद की आँख तो राधिका तुम लगीं
जब भी देखा तुम्हें शान्त-एकान्त में
मीरबाई-सी एक साधिका तुम लगीं
कृष्ण की बाँसुरी पर भरोसा रखो
मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं
रेत पर ........           

-विष्णु सक्सेना

Wednesday, October 11, 2023

सागर की प्यास

सागर की प्यास...
बेसुध हैं
रोम रंध्र
विकल मनाकाश
मैं ठहरा
तुम ठहरे
सागर की प्यास
चंदा की कनी कनी
चंदन में सनी सनी
हौले से उतर आई
आंगन में छनी छनी
मैं भीगा
तुम भीगे
सारा अवकाश
मेंहदी के पात-पात
रंग लिए हाथ-हाथ
चुपके से थाप गये
सेमर के गात-गात
मैं डूबा
तुम डूबे
आज अनायास
सांसों की गंध-गंध
मदिर मदिर मंद मंद
जाने कब खोल गए
तार-तार बंध-बंध
मैं भूला
तुम भूले
सारा इतिहास

-निर्मल शुक्ल

Tuesday, October 10, 2023

मेरे वियोग की आग

मेरे वियोग की आग न तुमको झुलसा दे
ऐसा प्रबंध कर जाऊँगा चलते-फिरते

धरती से रवि को कुछ ऐसा हो गया मोह
प्रातः से संध्या तक मुख तनिक नहीं मोड़ा
सह सकी न रजनी उस स्नेह की सुंदरता
वह बरस पड़ी कर में लेकर तम का कोड़ा
'कर डाले घर की आग भस्म जग को न कहीं'
यह सोच, चला अस्ताचल को बोझिल मन से
लेकिन कलंक लग जाय न प्रेम-प्रतिज्ञा को
इसलिए घोर तम में भी हाथ नहीं छोड़ा
शशि को अपनी सामर्थ्य सौंप दी हरषा कर
'तुम हरो पीर वसुधा की किरणें बरसा कर'
अब गहन-अमावस करे एक दिन को कुछ भी
रवि तो सब कुछ दे गया स्वयं ढलते-ढलते
मेरे वियोग की आग...

बोली प्रभात की किरन दिये की बाती से
"मेरा प्रियतम तुझ पर मँडराया करता है
तेरी इस रूप-शिखा पर ऐसा रीझा है
पल भर को मेरे पास न आया करता है 
अब तुझे बुझा कर माँनूगी, ले ठहर जरा
मेरे सम्मुख तू और न इतरा पाएगी"
लौ बोली, इसमें दोष नहीं कुछ भी मेरा
सामीप्य-लाभ सबके मन भाया करता है
तू दूर स्वयं रहती उससे मानिनी बनी
मैं भर लेती अंक में अतः भामिनी बनी
"बलिहारि देवि, इन शब्दों की गहराई पर"
निर्णय अपना दे गया शलभ जलते-जलते
मेरे वियोग की आग...

-राजेश दीक्षित

Sunday, October 08, 2023

तुम कहाँ हो

चाँदनी है ढूँढ़ती तुमको प्रिये !
तुम कहाँ हो ?

यह शरद की पूर्णिमा है,
बाँटती पीयूष आयी,
स्निग्धता की छींट करती
विश्व के कण-कण समायी,
पूर्णिमा भी टोहती तुमको प्रिये !
तुम कहाँ हो ?

प्रेम के आलोक में जग
रूप का दर्पण निहारे,
चंद्रमा है दीप्त देखो,
दीप्त हैं देखो, सितारे,
शुभ्रता भी खोजती तुमको प्रिये !
तुम कहाँ हो ?

जग भले देखे न देखे,
मन यती रहता अवश है,
हृद प्रतिष्ठित हो गया जो,
मन उसी के प्रेमवश है,
बावली सुधि टेरती तुमको प्रिये !
तुम कहाँ हो ?

-राजेन्द्र वर्मा

Friday, October 06, 2023

टेरो मत मन

टेरो मत मन 
खुले आम 
रेत धँसी यादों के गाँव 
लेकर के नाम  

नीले पानी कंकर क्या फेंका 
लहर मरी अँगड़ाकर 
तट तक को छू आई 
टूटे कुछ साँसों के 
टुकड़ों को जोड़कर 
ज़िन्दगी पठारों से टकराई  
टेरो मत मन 
समय वाम 
दूर क्षितिज बिखरे आयाम 
लेकर के नाम  

आवाज़ें बिखरीं 
बन सन्नाटा शेष रहीं 
पत्तों के गिरने की आवाज़ें 
पर्वत के गीतों का आसमान  
झील गिर्द घाटी की 
अन्तरंग वे साझें 
टेरो मत मन 
सरे शाम 
लुक-छुप के राग रँगे धाम 
लेकर के नाम 

-सुभाष वसिष्ठ

Thursday, October 05, 2023

कौन पानी पर महावर रख गया

ये हवाएँ आ रही हैं दूर से
खिड़कियों को खोलकर स्वागत करो

चाँदनी चल दी कहीं चुपचाप ही
कौन पानी पर महावर रख गया
सामने ऊषा खड़ी मुस्का रही
कौन इसके हाथ पीले कर गया
पर्वतों के पार वाले पर्व का
छन्द कोई बोलकर स्वागत करो
ये हवाएँ आ रही हैं दूर से..........

झाड़ियों के शीश सोने से मढ़े
बादलों की कोर चाँदी की बनी
तीर पर उतरी नहाने के लिए
यह सुबह की धूप कितनी कुनकुनी
गीत गा गा कर लहर हर कह रही
रंग कोई घोलकर स्वागत करो
ये हवाएँ आ रही हैं दूर से..........

धूप के चावल निमंत्रण दे रहे
मौन रहकर देर इतनी मत करो
बादलों के पार कोई देवता
उठ रहा है शीश अपना नत करो
कश्तियाँ जो कूल से बाँधी गयीं
पाल सबके खोलकर स्वागत करो
ये हवाएँ आ रही हैं दूर से
खिड़कियों को खोलकर स्वागत करो
               
-सुरेश उपाध्याय

Wednesday, October 04, 2023

यह बात किसी से मत कहना

मैं तेरे पिंजरे का तोता
तू मेरे पिंजरे की मैना
यह बात किसी से मत कहना।

मैं तेरी आँखों में बंदी
तू मेरी आँखों में प्रतिक्षण
मैं चलता तेरी साँस-साँस
तू मेरे मानस की धड़कन
मैं तेरे तन का रत्नहार
तू मेरे जीवन का गहना
यह बात किसी से ...

हम युगल पखेरू हँस लेंगे 
कुछ रो लेंगे कुछ गा लेंगे
हम बिना बात रूठेंगे भी
फिर हँसकर तभी मना लेंगे
अंतर में उगते भावों के
जलजात, किसी से मत कहना
यह बात किसी से ...

क्या कहा, कि मैं तो कह दूँगी
कह देगी, तो पछताएगी
पगली इस सारी दुनिया में
बिन बात सताई जाएगी
पीकर प्रिय अपने नयनों की बरसात
विहँसती ही रहना
यह बात किसी से ...

हम युगों-युगों के दो साथी
अब अलग-अलग होने आए
कहना होगा तुम हो पत्थर
पर मेरे लोचन भर आए
पगली, इस जग के अतल सिंधु में
अलग-अलग हमको बहना
यह बात किसी से ...

-देवराज दिनेश

Monday, October 02, 2023

तुम्हारे ही नयन में तो बसा हूँ


जगदीश पंकज श्रेष्ठ गीत/ नवगीतकार हैं... आज उनके इस नवगीत को पढ़ें ...  प्रतिक्रिया भी लिखें... 
...

सितारों में कहाँ 
तुम खोजते हो
तुम्हारे ही नयन में तो बसा हूँ 

किसी की चाहतों के 
रंग लेकर 
क्षितिज पर मल दिये हों
जब गगन ने
अनोखे दृश्य लेकर 
धूप से भी
सजाये हैं कहीं पर
शान्त मन ने 
तुम्हारी कोर पर 
चिपका हुआ हूँ
तुम्हारी दृष्टि में ही तो कसा हूँ !
तुम्हारे ही नयन में... 

तुम्हारे रोम-कूपों से 
उछलकर
अनोखी गन्ध कैसी
बह रही है 
मिला मकरंद भी मादक 
जिसे हो
उसी की साँस सब कुछ
कह रही है
सुखद आलिंगनों की
कल्पना में  
मचलकर मैं स्वयं ही तो फँसा हूँ !
तुम्हारे ही नयन में... 

-जगदीश पंकज

Sunday, October 01, 2023

सूनी साँझ

आज सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॅा. शिवमंगल सिंह सुमन का एक प्रसिद्ध  गीत उनके प्रस्तुत है...  
इसे पढ़ें और समझें कि एक बड़े कद के साहित्यकार के गीत में ऐसा क्या होता है जिससे वह कुछ खास हो जाता है ...  अपनी टिप्पणी भी लिखें... 
...

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, 
साथ नहीं हो तुम।
पेड़ खड़े फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधूली ! 
साथ नहीं हो तुम।

कुलबुल-कुलबुल नीड़-नीड़ में
चहचह-चहचह मीड़-मीड़ में
धुन अलबेली, 
साथ नहीं हो तुम।

जागी-जागी, सोई-सोई
पास पड़ी है खोई-खोई
निशा लजीली, 
साथ नहीं हो तुम।

ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमड़ी धारा, जैसी मुझ पर
बीती, झेली, 
साथ नहीं हो तुम।

यह कैसी होनी-अनहोनी
पुतली-पुतली आँखमिचैनी
खुलकर खेली, 
साथ नहीं हो तुम।
   
 -शिवमंगल सिंह सुमन

Saturday, September 30, 2023

जाल फेंक रे मछेरे

बुद्धिनाथ मिश्र लोकप्रिय गीतकार हैं, उनके गीतों में एक विशेष तरह का सम्मोहन रहता है... आज उनके इस नवगीत को पढ़ें और समझें कि बिम्ब प्रतीकों में कैसे कुछ गहरी बात कही जा सकती है...  प्रतिक्रिया भी लिखें... 
...

एक बार और जाल 
फेंक रे मछेरे !
जाने किस मछली में 
बन्धन की चाह हो !

सपनों की ओस 
गूँथती कुश की नोंक है
हर दर्पण में उभरा 
एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में 
सीप के बसेरे
इस अँधेर में कैसे 
नेह का निबाह हो !
जाने किस मछली में... 

उनका मन आज 
हो गया पुरइन पात है
भिगो नहीं पाती 
यह पूरी बरसात है
चन्दा के इर्द-गिर्द 
मेघों के घेरे
ऐसे में क्यों न कोई 
मौसमी गुनाह हो !
जाने किस मछली में... 

गूँजती गुफ़ाओं में 
पिछली सौगन्ध है
हर चारे में कोई 
चुम्बकीय गन्ध है
कैसे दे हंस 
झील के अनंत फेरे
पग-पग पर लहरें जब 
बाँध रही छाँह हों !
जाने किस मछली में... 

कुंकुम-सी निखरी कुछ 
भोरहरी लाज है
बंसी की डोर बहुत 
काँप रही आज है
यों ही ना तोड़ अभी 
बीन रे सँपेरे
जाने किस नागिन में 
प्रीत का उछाह हो !
जाने किस मछली में... 

-बुद्धिनाथ मिश्र

Friday, September 29, 2023

ये असंगति जिन्दगी के द्वार






  भारत भूषण जी का  एक बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय गीत 


ये असंगति जिन्दगी के द्वार 
सौ-सौ बार रोई
बाँह में है और कोई 
चाह में है और कोई।।

साँप के आलिंगनो में
मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपने भरे कुछ
फूल मुरदों पर चढ़े हैं
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
देह में है और कोई चाह में है और कोई।।

स्वप्न के शव पर खड़े हो
मांग भरती हैं प्रथाएँ
कंगनों से तोड़ हीरा
खा रही कितनी व्यथाएँ
ये कथाएँ उग रही हैं नागफन जैसी ऊबोई
सृष्टि में है और कोई चाह में है और कोई।।

जो समर्पण ही नहीं हैं
वे समर्पण भी हुए हैं
देह सब जूठी पड़ी है
प्राण फिर भी अनछुए हैं
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे संजोई
हास में है और कोई चाह में है और कोई।।
                
-भारत भूषण

Thursday, September 28, 2023

एक पेड़ चाँदनी

देवेन्द्र कुमार बंगाली  का  एक बहुत प्रसिद्ध नवगीत 




एक पेड़ चाँदनी
लगाया है आँगने
फूले तो आ जाना
एक फूल माँगने

ढिबरी की लौ
जैसी लीक चली आ रही
बादल का रोना है
बिजली शरमा रही
मेरा घर छाया है 
तेरे सुहाग ने 
फूले तो आ जाना...

तन कातिक 
मन अगहन
बार-बार हो रहा
मुझमें तेरा कुआर
जैसे कुछ बो रहा
रहने दो यह हिसाब 
कर लेना बाद में
फूले तो आ जाना...

नदी, झील सागर से
रिश्ते मत जोड़ना
लहरों को आता है
यहाँ-वहाँ छोड़ना
मुझको पहुँचाया है 
तुम तक अनुराग ने
फूले तो आ जाना...

एक पेड़ चाँदनी
लगाया है आँगने
फूले तो आ जाना
एक फूल माँगने ।

-देवेन्द्र कुमार बंगाली 

Wednesday, September 27, 2023

अनकही आग में ही दहे जा रहे !

कृष्ण भारतीय वरिष्ठ गीतकार हैं, उनके गीतों में एक विशेष तरह की सादगी है... उनके इस गीत को पढ़ें और प्रतिक्रिया भी लिखें... 
....

अनकही आग में ही दहे जा रहे ! 
तुम मुझे, मैं तुम्हें 
मुग्ध हूँ देखकर 
हम बहुत कुछ अबोले कहे जा रहे 

प्यार  की है न भाषा, न  रंगत  कोई 
सब मगर मुस्कराते सबेरे हुए 
भाव, सपने रचे, आँख की कोर क्या-
इद्रधनुषी  छटा के चितेरे  हुए 
अनकहे मौन में 
हम सुलगते रहे-
अनकही आग में ही दहे जा रहे 

गीत की आड़ में जो लिखीं चिट्ठियाँ
प्रेम का तुम निमंत्रण वो पढ़ ना सके 
ये हृदय  की अँगूठी  सिसकती रही 
हम नगीने-सी  सूरत ये‌ जड़ ना सके 
स्वप्न के कैनवासी 
 बिछे पृष्ठ पर 
हम ख्यालों की मूरत गढ़े जा रहे
अनकही आग में ... 

लाज की ओढ़नी में कोई अप्सरा 
शर्म की बदलियों में सिमटती रही 
चाँदनी के लिए हम खड़े रह गये 
इक अमावस में आभा वो घटती रही 
बाँह में हम तुम्हें, 
सोच में भींचते 
गीत अपनी ही धुन में पढ़े जा रहे 
अनकही आग में...

-कृष्ण भारतीय

Tuesday, September 26, 2023

पत्र लिखे, पर भेज न पाया

पत्र लिखे, पर
भेज न पाया
मीत तुम्हारे पास

अधरों पर
जो बात न आती
लिख दी है इनमें
बिना तुम्हारे 
लगता जैसे
साँस नहीं तन में
रोम-रोम में
बिंध जाता है
असहनीय संत्रास
पत्र लिखे पर... 

तुम होते तो पुरवाई
बेतरह बहकती है
पावस के घन देख
नदी
जिस तरह थिरकती है
सत्य कहूँ
जीवन के वे क्षण
हो जाते हैं खास
पत्र लिखे पर... 

तुम्हें देख
मोगरे महकने लगते हैं
मन में
विद्युत के
प्रवाह-सा अनुभव
होता है तन में
बड़े भोर
भर जाता जैसे
कण-कण में उल्लास
पत्र लिखे पर... 

चाहा बहुत
न मन की परतें
मृदुल खोल पाये
मेरे सारे गीत
रह गये 
जैसे अनगाये
संकोचों के आगे
फिर-फिर
बौने पड़े प्रयास
पत्र लिखे पर... 

-मृदुल शर्मा

Monday, September 25, 2023

स्वप्न की झील में तैरता

डॅा. धनंजय सिंह लोकप्रिय गीतकार हैं, उनके गीतों में एक विशेष तरह का सम्मोहन रहता है... उनके इस गीत को पढ़ें और प्रतिक्रिया भी लिखें... 
....

स्वप्न की झील में तैरता
मन का यह सुकोमल कमल

चंद्रिका-स्नात मधु रात में
हो हमारा-तुम्हारा मिलन
दूर जैसे क्षितिज के परे
झुक रहा हो धरा पर गगन
घास के मखमली वक्ष पर
मोतियों की लड़ी हो तरल
स्वप्न की झील में तैरता...

प्यार का फूल तो खिल गया
तुम इसे रूप, रस, गंध दो
शब्द तो मिल गये गीत को
तुम इसे ताल, लय, छंद दो
मंद-मादक स्वरों में सजी
बाँसुरी की धुनें हों सरल
स्वप्न की झील में तैरता...

मौन इतना मुखर हो उठे
जो हृदय-पुस्तिका खोल दे
और जब एकरसता बढ़े
भावना ही स्वयं बोल दे
इस तरह मन बहलता रहे
सर्जनाएँ सदा हों सफल
स्वप्न की झील में तैरता...

पास भी दूर भी हम रहें
ज़िंदगी किंतु हँसती रहे
मान-मनुहार की प्यार की
याद प्राणों को कसती रहे
इस तरह चिर पिपासा मिटे
और छलकता रहे स्नेह-जल
स्वप्न की झील में तैरता...

-धनञ्जय सिंह

Sunday, September 24, 2023

मुझको इतना प्यार नहीं दो

चन्द्रसेन विराट हिंदी के लोकप्रिय साहित्यकार हैं, अनेक विधाओं में साहित्य सृजन करने वाले विराट जी गीत विधा के सिद्धहस्त रचनाकार रहे हैं, उनके इस प्रेमगीत को पढ़ें और प्रतिक्रिया लिखें... 
........

जो न समेटा जाये मुझसे, 
मुझको इतना प्यार नहीं दो
क्षर प्राणों को ढाई अक्षर का 
इतना गुरु भार नहीं दो

मेरा जीवन मुक्त-काव्य है 
तुम तो छन्दमयी रचना हो
मैं काजल की राहों वाला 
तुम बिलकुल उज्ज्वल-वसना हो
दृगद्युति से अंधे हो जायें 
तुम इतना उजियार नहीं दो
जीवन भर न चुके ऋण जिसका 
तुम इतना आभार नहीं दो
मुझको इतना...

अभी न रेशम गाँठ बँधी है 
चाहो तो यह सूत्र तोड़ लो
मेरा क्या होगा मत सोचो 
तुम तो अपना पाँव मोड़ लो
मन के शीशमहल में मुझको 
आने का अधिकार नहीं दो
दर्पण, पाहन का क्या परिचय, 
परिचय का विस्तार नहीं दो
मुझको इतना...

मैं अनाथ दृग का आँसू हूँ 
मेरा मूल्य नहीं आँको तुम
वीराने में खिला फूल हूँ, 
मुझे न जूड़े में टाँको तुम
मेरे आवारा मन को तुम 
ममता का व्यवहार नहीं दो
बुझ जाने दो मुझ दीपक को, 
किन्तु स्नेह की धार नहीं दो
मुझको इतना...
-चन्द्रसेन विराट

Saturday, September 23, 2023

गीत अपना कहीं गुनगुनाते हुए

डॅा. कुँअर बेचैन जी हिंदी के लोकप्रिय और वरिष्ठ गीतकार रहे हैं, इस संकलन के लिए यह गीत डॅा. कुँअर बेचैन जी ने हाथ से लिखकर भेजा था.... उनका स्मरण उनके इस प्रेमगीत से करें और प्रतिक्रिया भी लिखें... 
.........................

ग़म तुम्हारा लिए घूमते हम फिरे
मंच से मंच तक गीत गाते हुए
चाह थी बस यही हम तुम्हें देख लें
गीत अपना कहीं गुनगुनाते हुए

हम जहाँ भी रहे हम अकेले न थे
साथ में याद कोई तुम्हारी रही
साँस निकली, तुम्हें बस तुम्हें ढूँढ़ने
लौटने पर कहाँ वह हमारी रही
बादलों की तरह हम नयन में घिरे
और रो भी पड़े मुस्कराते हुए
चाह थी बस यही हम तुम्हें देख लें
गीत अपना कहीं...

एक युग हो गया ढूँढ़ते-ढूँढ़ते
सामने तो रहे, पर मिले ही नहीं
हमने समझा कि तुम डाल के फूल हो
किन्तु पाषाण थे तुम, हिले ही नहीं
हम कई बार खुद भी नयन से गिरे
आँसुओं की तरह झिलमिलाते हुए
चाह थी बस यही हम तुम्हें देख लें
गीत अपना कहीं...

तुम हमें सिर्फ़ अक्षर समझते रहे
जब कि हम आँसुओं से भरे नैन थे
कागजों पर रहे चिट्ठियों की तरह
होठ पर जब रहे तो मधुर बैन थे
तुम गुज़र भी गए आँधियों की तरह
रह गए पंख हम फड़फड़ाते हुए
चाह थी बस यही हम तुम्हें देख लें
गीत अपना कहीं गुनगुनाते हुए।               
                       
-डॅा० कुँअर बेचैन

Friday, September 22, 2023

कैसे बाँधूँ मन

[प्रतिदिन एक चुनिंदा प्रेमगीत ... में आज नवगीतकार अनामिका सिंह का एक प्रेमगीत... कैसे बाँधू मन... ]

एक तुम्हारा साथ सलोना
उस पर ये अगहन
कैसे बाँधू मन! 

कुहरा-कुहरा हुईं 
दिशाएँ
मौसम छन्द गढ़े 
ढाई आखर बाँच 
बावरे मन का 
ताप बढ़े 
तोड़ रही है तंद्रा बेसुध 
चूड़ी की खन-खन
कैसे बाँधूँ मन... 

परस मखमली धड़कन दिल की
रह-रह बढ़ा रहा 
श्वासों की आवाजाही में 
संयम आज ढहा 
हौले से माथे जब टाँका 
है अनमोल रतन
कैसे बाँधूँ मन... 

अधरों का उपवास तोड़कर 
पल में सदी जिये 
रंग धनुक से अंतर्मन में
रिलमिल घोल दिये 
हुआ पलाशी अमलतास-सा
पियराया आनन
कैसे बाँधूँ मन
      
-अनामिका सिंह

Thursday, September 21, 2023

खींचकर मेरी हथेली

रात आधी
खींचकर मेरी हथेली
एक उँगली से लिखा था
‘प्यार’ तुमने

फासला कुछ था हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दिशा दिल की तुम्हारे हो रही थी
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ था
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......

एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
कृष्ण-पक्षी चाँद निकला था गगन में
इस तरह करवट पड़ी थीं तुम, कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में
मैं लगा दूँ आग उस संसार में, है
प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर
जानती हो, उस समय क्या कर गुजरने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......

प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ उजाले में अँधेरा डूब जाता
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूबियों के साथ परदे को उठाता
एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा
वह निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने
पर गज़ब का था किया अधिकार तुमने
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......

और उतने फासले पर आज तक, सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौक़ा
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं-
बुझ नहीं पाया अभी तक, उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने
रात आधी
खींचकर मेरी हथेली ......

-हरिवंश राय बच्चन

Wednesday, September 20, 2023

प्यार का नाता हमारा

जिन्दगी के मोड़ पर यह 
प्यार का नाता हमारा
राह की वीरानियों को 
मिल गया आखिर सहारा
प्यार का नाता...

ज्योत्सना-सी स्निग्ध सुन्दर 
तुम गगन की तारिका-सी
पुष्पिकाओं से सजी
मधुमास की अभिसारिका-सी
रूप की साकार छवि-
माधुर्य की स्वच्छन्द धारा
प्यार का नाता...

मैं तुम्हीं को खोजता हूँ
चाँद की परछाइयों में
बाट तकता हूँ तुम्हारी
रात की तनहाइयों में
आज मेरी कामनाओं 
ने तुम्हें कितना पुकारा
प्यार का नाता...

दूर हो तुम किन्तु फिर भी 
दीपिका हो ज्योति मेरी
प्रेरणा हो शक्ति हो तुम! 
प्रीति की अनुभूति मेरी
गुनगुना लो प्यार से-
यह गीत मेरा है तुम्हारा
प्यार का नाता...

-विनोद तिवारी
                     

Tuesday, September 19, 2023

वे वासंती गीत तुम्हारे

जाने कैसे भूल गये तुम 
वे सारे अनुबंध हमारे 
मुझको अब तक याद आते हैं
वे बासंती गीत तुम्हारे 

अलकों को मावस कहते थे 
आनन को तुम शशि का दर्पण
लहरों-सी थी तन की भाषा 
वेद-ऋचाओं जैसा था मन 
साँसें महकें जूही चम्पा 
चन्दन-वन त्यौहार हमारे 
पर अब थके हुए से लम्हे
अपनी-अपनी नियति से हारे
मुझको अब तक... 

संध्या छेड़े राग-रागिनी
मध्यम सुर में कोयल बानी
अब भी ठहरा समय वहीं पर 
मछली से नयनों में पानी 
करवट लेती रात अभी पर
सुबह से रूठे हैं उजियारे 
दिन जोगी मन सूना-सूना
कौन किसी की राह निहारे 
मुझको अब तक... 

मरुथल बसा हुआ है भीतर 
बाहर वर्षा जल है भारी 
खण्डित प्रणय टीसता ऐसे 
हरे पेड़ पर जैसे आरी 
विष पीकर भी रही बावरी 
मीरा पल-पल श्याम पुकारे 
वही बाँसुरी, वही कन्हैया 
वो यमुना तट वही किनारे 
मुझको अब तक ... 

-रंजना गुप्ता

Monday, September 18, 2023

अच्छा लगता है

अब भी आँखों से
बतियाना अच्छा लगता है
हाथों में ले हाथ दबाना
अच्छा लगता है

अच्छा लगता है
कनखी से नज़रों का मिलना
नीले अधरों पर अड़हुल के
फूलों का खिलना
तेरा बल खाना
शर्माना अच्छा लगता है
साँसों का कुछ-कुछ गर्माना
अच्छा लगता है
अब भी आँखों से...

अच्छा लगता है
दाँतों से तिनके को टुँगना
तन से तन के छू जाने पर
सिहरन का उगना
समय पूछ कर
घड़ी मिलाना अच्छा लगता है
चुटकी, चुहल, चिकोटी,
ताना अच्छा लगता है
अब भी आँखों से...

अच्छा लगता
बूझ पहेली जीवन की लेना
टूट रहे तन का दुख
अँगड़ाई से ढँक देना
थके नयन में
सुबह सजाना, अच्छा लगता है
स्मृतियों पर रंग चढ़ाना
अच्छा लगता है
अब भी आँखों से...

-नचिकेता

Saturday, September 16, 2023

चलो छिया-छी हो अन्तर में!

चलो छिया-छी हो अन्तर में!
तुम चन्दा
मैं रात सुहागन
चमक-चमक उट्ठें आँगन में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!

बिखर-बिखर उट्ठो, मेरे घन,
भर काले अन्तस पर कन-कन,
श्याम-गौर का अर्थ समझ लें
जगत पुतलियाँ शून्य प्रहर में
चलो छिया-छी हो ...

किरनों के भुज, औ अनगिन कर
मेलो, मेरे काले जी पर
उमग-उमग उट्ठे रहस्य,
गोरी बाँहों का श्याम सुन्दर में
चलो छिया-छी हो ...

मत देखो, चमकीली किरनों
जग को, आ चाँदी के साजन!
कहीं चाँदनी मत मिल जावे
जग-यौवन की लहर-लहर में
चलो छिया-छी हो ...

चाहों-सी, आहों-सी, मनु-
हारों-सी, मैं हूँ श्यामल-श्यामल
बिना हाथ आये छुप जाते
हो, क्यों प्रिय किसके मंदिर में
चलो छिया-छी हो ...

कोटि कोटि दृग, में जगमग जो-
हूँ काले स्वर, काले क्षण गिन,
ओ उज्ज्वल श्रम कुछ छू दो
पटरानी को तुम अमर उभर दो
चलो छिया-छी हो ---

चमकील किरनीले शस्त्रों
काट रहे तम श्यामल तिल-तिल
ऊषा का मरघट साजोगे
यही लिख सके चार पहर में
चलो छिया-छी हो ...

ये अंगारे, कहते आये
ये जी के टुकड़े, ये तारे
‘आज मिलोगे’ ‘आज मिलोगे’,
पर हम मिलें न दुनिया-भर में
चलो छिया-छी हो अन्तर में!
        
-पं. माखनलाल चतुर्वेदी 

Thursday, September 14, 2023

सुधि के सघन मेघ घिर छाए

रहे सींचते, ऊसर बंजर
हरियाली के दरस न पाए
आज 
अषाढ़ी अहसासों पर
सुधि के
सघन मेघ घिर छाए।

रातों को छोटा कर देती
थी लम्बी पगली वार्ताएं
और शीत की ठिठुरन वाली
वे मादक कोमल ऊष्माएँ
ओस नहायी
किरन कुनकुनी
छुए अंग अलसाए
सुधि के सघन मेघ ...

अँधियारों में कभी लिखी थी
जो उजियारी प्रणय कथाएँ
भरी दुपहरी बाँचा करती
थीं उनको चन्दनी हवाएँ
हरित कछारों में
दिन हिरना
जाने कहों कहाँ भरमाए
सुधि के सघन मेघ ...

संस्पर्शों के मौन स्वरों में
कितने वाद्य निनाद ध्वनित थे
किसी अजाने स्वर्गलोक के
रस के अमृत कलश स्रवित थे
प्राण-प्राण पुलकित
अधरों ने
जब अपने
मधुकोश लुटाए
सुधि के सघन मेघ ...

बाँध नहीं पाते शब्दों में
पल-पल पुलकित
वे पावनक्शण
बूँद-बूँद में प्राप्त तृप्ति-सुख
साँस-साँस में अर्पण-अर्पण
उल्लासों के वे मृग-छौने
नहीं लौटकर फिर घर आए
सुधि के सघन मेघ ...

-यतीन्द्रनाथ राही

Tuesday, September 12, 2023

नाचइ नदिया बीच हिलोर

नाचइ नदिया बीच हिलोर
बन मइँ नचइ बसन्ती मोर
लागइ सोरहों बसन्त को 
सिंगार गोरिया

सूधे परइँ न पाँव‚ 
हिया माँ हरिनी भरै कुलाँचइँ
बैस बावरी मुँह बिदुराबइ‚ 
को गीता कउ बाँचइ
चिड़िया चाहै पंख पसार‚ 
उड़िबो दूरि गगन के पार
माँगइ रसिया सों-
मीठी मनुहार गोरिया
नाचइ नदिया बीच हिलोर....

गूँगे दरपन सों बतराबै 
करि करि के मुँहजोरी
चोरी की चोरी याकै 
ऊपर सइ सीनाजोरी
अपनो दरपन अपनो रूप 
फैली उजरी उजरी धूप
माँगइ अपने पै अपनो उधार गोरिया
नाचइ नदिया बीच हिलोर...

नैना वशीकरन चितवन मइँ
कामरूप को टोना
बोलइ तौ चाँदी की घंटी 
मुस्कावै तौ सोना
ज्ञानी भूले ज्ञान गुमान
ध्यानी जप तप पूजा ध्यान
लागै सबके हिये की हकदार गोरिया
नाचै नदिया बीच हिलोर...

साँझ सलाई लै के 
कजरा अँधियारे में पारो
धरि रजनी की धार गुसइयाँ
बड़ो गज़बु करि डारो
चन्दा बिन्दिया दई लगाय
नज़रि ना काहू की लगि जाय
लिखी विधिना नइँ 
किनके लिलार गोरिया
नाचइ नदिया बीच हिलोर...

 –आत्म प्रकाश शुक्ल

Thursday, September 07, 2023

ताल-सा हिलता रहा मन

धर गये मेंहदी रचे
दो हाथ जल में दीप
जन्म-जन्मों ताल-सा
हिलता रहा मन

बाँचते हम रह गये
अन्तर्कथा
स्वर्णकेशा-
गीत-वधुओं की व्यथा
ले गया चुनकर कमल
कोई हठी युवराज
देर तक शैवाल-सा
हिलता रहा मन
धर गये मेंहदी रचे...

जंगलों का दुख
तटों की त्रासदी
भूल, सुख से सो गई
कोई नदी
थक गई लड़ती हवाओं से
अभागी नाव
और झीने पाल-सा
हिलता रहा मन
धर गये मेंहदी रचे...

तुम गये क्या
जग हुआ अंधा कुआँ
रेल छूटी, रह गया
केवल धुआँ
गुनगुनाते हम- 
भरी आँखों
फिरे सब रात
हाथ के रूमाल-सा
हिलता रहा मन
धर गये मेंहदी रचे...
     
-किशन सरोज

Wednesday, September 06, 2023

मेरा है नाम इसे प्यार से लिखो

 रेत से लिखो या जलधार से लिखो
मेरा है नाम इसे प्यार से लिखो

खोलकर हवाओं में जूड़े सौरभ के
ओस नम हथेली में इन्द्रधनु कसेंगे हम
फूलों से भर देंगे सूनी यात्राएँ
नीले जल में हिलते द्वीप में बसेंगे हम
पलकों की स्याही से 
अधर की गवाही से
या बाहों के बन्दनवार से लिखो
मेरा है नाम इसे प्यार से लिखो

भरकर पूरनमासी चांँदनी शिराओं में
बाँहों में धार नदी निर्झर की जोड़कर
छोड़कर हिरन साँसों के चन्दन वन में
हम तुम बह जायेंगे लहरों को तोड़कर
पल से, चाहे छिन से, 
या कि निमिष भर मन से
दो मंगल अक्षर त्योहार से लिखो
मेरा है नाम इसे प्यार से लिखो
         
-विनोद निगम

Tuesday, September 05, 2023

मन होता है पारा

मन होता है पारा 
ऐसे देखा नहीं करो

जाने तुमने क्या कर डाला 
उलट-पुलट मौसम
कभी घाव ज्यादा दुखता है
और कभी मरहम
जहाँ-जहाँ ज्यादा दुखता है
छूकर वहीं दुबारा
ऐसे देखा नहीं करो
मन होता है पारा... 

यह मुस्कान तुम्हारी
डूबी हुई शरारत में
उलझा-उलझा खत हो जैसे
साफ इबारत में
रह-रह कर दहकेगा
प्यासे होठों पर अंगारा
ऐसे देखा नहीं करो
मन होता है पारा... 

कौन बचाकर आँख
सुबह की नींद उतार गया
बूूढ़े सूरज पर पीछे से
सीटी मार गया
हम पर शक पहले से है
तुम करके और इशारा
ऐसे देखा नहीं करो
मन होता है पारा... 

होना-जाना क्या है 
जैसा कल था वैसा कल
मेरे सन्नाटे में बस
सूनेपन की हलचल
अँधियारे की नेमप्लेट पर
लिख-लिखकर उजियारा
ऐसे देखा नहीं करो
मन होता है पारा... । 

-रामानंद दोषी

Monday, September 04, 2023

परिचय की गाँठ

यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने
परिचय की ये गाँठ लगा दी।

था पथ पर मैं भूला-भूला
फूल उपेक्षित कोई फूला
जाने कौन लहर थी, उस दिन
तुमने अपनी याद जगा दी
यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने
परिचय की ये गाँठ लगा दी।

कभी-कभी यों हो जाता है
गीत कहीं कोई गाता है
गूँज किसी उर में उठती है
तुमने वही धार उमगा दी
यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने
परिचय की ये गाँठ लगा दी।

जड़ता है जीवन की पीड़ा
निस्तरंग पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अनजाने वह पीड़ा
छवि के सर से दूर भगा दी
यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने
परिचय की ये गाँठ लगा दी।।

-त्रिलोचन

Saturday, September 02, 2023

हिरना आँखें झील-झील

हिरना आँखें झील-झील
गलियारे पिया असाढ़ में,
गलियारे की नीम, निमौली-
मारे पिया असाढ़ में 

मेहँदी पहन रही पुरवाई 
उतरी नदी पहाड़ों से
देख रहे हैं उड़ते बादल
हम अधखुले किवाड़ों से
आग लगाकर भाग रहे
आवारे पिया असाढ़ में
हिरना आँखें झील-झील... 

दूर कहीं बरसा है पानी
सोंधी गंध हवाओं में
सिर धुनती लौटेंगी लहरें
कल से इन्हीं दिशाओं में
रेत की मछली छू जाती
अनियारे पिया असाढ़ में 
हिरना आँखें झील-झील... 

दिन भर देते हाथ बुलाते
टीले हरे कछारों में
देह हुई है महुअर जैसी
आज मधुर बौछारों में
इंद्रधनुष की छाँह, और
उद्गारे पिया असाढ़ में 
हिरना आँखें झील-झील... 

-कैलाश गौतम

Thursday, August 31, 2023

लौट आओ माँग के सिंदूर

लौट आओ 
माँग के सिंदूर की सौगंध तुमको
नयन का सावन 
निमंत्रण दे रहा है।

आज बिसराकर तुम्हें 
कितना दुखी मन 
यह कहा जाता नहीं है
मौन रहना चाहता, 
पर बिन कहे भी अब 
रहा जाता नहीं है
मीत! अपनों से बिगड़ती है 
बुरा क्यों मानती हो!
लौट आओ प्राण? 
पहले प्यार की सौगंध तुमको
प्रीति का बचपन 
निमंत्रण दे रहा है
लौट आओ... 

रूठता है 
रात से भी चाँद कोई 
और मंज़िल से चरन भी
रूठ जाते 
डाल से भी फूल अनगिन 
नींद से गीले नयन भी
बन गई है बात 
कुछ ऐसी कि 
मन में चुभ गई, तो
लौट आओ मानिनी, 
है मान की सौगंध तुमको
बात का निर्धन 
निमंत्रण दे रहा है
लौट आओ... 

चूम लूँ मंज़िल, 
यही मैं चाहता पर 
तुम बिना पग क्या चलेगा, 
माँगने पर 
मिल न पाया स्नेह तो 
यह प्राण-दीपक क्या जलेगा
यह न जलता, 
किंतु आशा कर रही 
मजबूर इसको
लौट आओ 
बुझ रहे इस दीप की 
सौगंध तुमको
ज्योति का कण-कण 
निमंत्रण दे रहा है
लौट आओ... 

दूर होती जा रही हो 
तुम लहर-सी 
है विवश कोई किनारा-
आज पलकों में 
समाया जा रहा है 
सुरमई आँचल तुम्हारा
हो न जाये आँख से 
ओझल महावर और मेंहदी,
लौट आओ, 
सतरँगी-शृंगार की सौगंध तुमको
अनमना दर्पण 
निमंत्रण दे रहा है
लौट आओ... 

कौन-सा मन 
हो चला गमगीन जिससे 
सिसकियाँ भरतीं दिशाएँ
आँसुओं का गीत 
गाना चाहती हैं 
नीर से बोझिल घटाएँ
लो घिरे बादल, 
लगी झड़ियाँ, 
मचलतीं बिजलियाँ भी-
लौट आओ 
हारती मनुहार की सौगंध तुमको
भीगता आँगन 
निमंत्रण दे रहा है
लौट आओ
यह अकेला 
मन निमंत्रण दे रहा है।

-सोम ठाकुर

Wednesday, August 30, 2023

साथ-साथ चलते

एक हाथ में थी कविता, दूजे में थी रोटी
हम तानते रहे दोनों की लय छोटी-छोटी
चलते रहे सफ़र में हम यों ही खाते-पीते
साथ-साथ चलते जाना कब साठ बरस बीते

जब आया जलजला, पाँव काँपने लगे डर से
बढ़कर थाम लिया हमने इक-दूजे को कर से
कितना कुछ टूटा–फूटा, पर हम न कभी रीते
साथ-साथ चलते जाना ...

छोटे-छोटे सुख–पंछी फड़काते थे पाँखें
छोटे-छोटे सपनों से भर आती थीं आँखें
गिरे-पड़े, कुछ हारे-से भी, पर आख़िर जीते
साथ-साथ चलते जाना ...

ख़ुद के गिरने पर उठकर तुम कितना हँसती थीं
पर मेरी छोटी-सी डगमग तुमको डँसती थी
भर आते थे जीवन-रस से, पल विष-से तीते
साथ-साथ चलते जाना ...

जब-जब दूर हुआ घर से, तनहा हो घबराया
तब-तब लगा मुझे, कोई स्वर तुम जैसा आया
घबराना मत तनहाई से, मैं तो हूँ मीते
साथ-साथ चलते जाना ...

–रामदरश मिश्र

Saturday, August 12, 2023

जब तुम हो जाती हो उदास !

तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास !
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में 
सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चाँदनी जगती हो 
तुम कितनी सुन्दर... 

मुँह पर ढँक लेती हो आँचल
ज्यों डूब रहे रवि पर बादल,
या दिन-भर उड़कर थकी किरन,
सो जाती हो पाँखें समेट, 
आँचल में अलस उदासी बन 
दो भूले-भटके सान्ध्य-विहग, 
पुतली में कर लेते निवास 
तुम कितनी सुन्दर...

खारे आँसू से धुले गाल
रूखे हलके अधखुले बाल,
बालों में अजब सुनहरापन,
झरती ज्यों रेशम की किरनें, 
संझा की बदरी से छन-छन 
मिसरी के होठों पर सूखी 
किन अरमानों की विकल प्यास 
तुम कितनी सुन्दर...

भँवरों की पाँतें उतर-उतर
कानों में झुककर गुन-गुनकर
हैं पूछ रहीं- क्या बात सखी ? 
उन्मन पलकों की कोरों में 
क्यों दबी ढँकी बरसात सखी ?
चम्पई वक्ष को छूकर क्यों 
उड़ जाती केसर की उसाँस ?
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में 
सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चाँदनी जगती हो !
तुम कितनी सुन्दर लगती हो...

-धर्मवीर भारती

Friday, August 11, 2023

मैं सतह पर जी न पाई

मैं सतह पर जी न पाई
और तुम उतरे न गहरे

मैं रही मैं, तुम रहे तुम
तुम सघन तो मैं तरल
बर्फ़ से होते सघन तो
बात हो जाती सरल
मैं उमगती बाण-गंगा
और तुम पाषाण ठहरे
मैं सतह पर... 

भीड़ में तो हूँ मगर मैं
भीड़ का हिस्सा नहीं,
भूलना सम्भव न होगा
सिर्फ़ मैं क़िस्सा नहीं
मैं नहीं उनमें, हुए जो-
चेहरों के बीच चेहरे
मैं सतह पर... 

अधर से आई नयन में
मैं वही अभिव्यक्ति हूँ
भक्ति बनने की क्रिया में
चल रही अनुरक्ति हूँ
मैं निरन्तर साधना हूँ
और तुम सपने सुनहरे
मैं सतह पर... 

मुक्त नभ को छोड़ भूले-
से, भला क्या चुन लिया
एक पिंजरा देह का था
एक ख़ुद ही बुन लिया
आर्त स्वर हैं प्रार्थना के
हो गये पर देव बहरे
मैं सतह पर... 

-इन्दिरा गौड़

Sunday, August 06, 2023

तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ

मैं धन से निर्धन हूँ पर मन का राजा हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

मन तो मेरा भी चाहा करता है अक्सर
बिखरा दूँ सारी ख़ुशी तुम्हारे आँगन में
यदि एक रात मैं नभ का राजा हो जाऊँ
रवि, चाँद, सितारे भरूँ तुम्हारे दामन में
जिसने मुझको नभ तक जाने में साथ दिया
वह माटी की दीवार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

मुझको गोकुल का कृष्ण बना रहने दो प्रिय!
मैं चीर चुराता रहूँ और शर्माओ तुम
वैभव की वह द्वारका अगर मिल गई मुझे
सन्देश पठाती ही न कहीं रह जाओ तुम
तुमको मेरा विश्वास सँजोना ही होगा
अंतर तक हृदय उधार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

मैं धन के चन्दन-वन में एक दिवस पहुँचा
मदभरी सुरभि में डूबे साँझ-सकारे थे
पर भूमि प्यार की जहाँ ज़हर से काली थी
हर ओर पाप के नाग कुंडली मारे थे
मेरा भी विषधर बनना यदि स्वीकार करो
वह सौरभ युक्त बयार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

काँटों के भाव बिके मेरे सब प्रीति-सुमन
फिर भी मैंने हँस-हँसकर है वेदना सही
वह प्यार नहीं कर सकता है, व्यापार करे
है जिसे प्यार में भी अपनी चेतना रही
तुम अपना होश डूबा दो मेरी बाँहों में
मैं अपने जन्म हज़ार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

द्रौपदी दाँव पर जहाँ लगा दी जाती है
सौगंध प्यार की, वहाँ स्वर्ण भी माटी है
कंचन के मृग के पीछे जब-जब राम गए
सीता ने सारी उम्र बिलखकर काटी है
उस स्वर्ण-सप्त लंका में कोई सुखी न था
श्रम-स्वेद जड़ित गलहार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

मैं अपराधी ही सही जगत के पनघट पर
आया ही क्यों मैं सोने की ज़ंजीर बिना
लेकिन तुम ही कुछ और न लौटा ले जाना
यह रूप-गगरिया कहीं प्यार के नीर बिना
इस पनघट पर तो धन-दौलत का पहरा है
निर्मल गंगा की धार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ ! 

-उदयप्रताप सिंह

Friday, August 04, 2023

विश्वास बहुत है

जाने क्यों तुमसे मिलने की, 
आशा कम विश्वास बहुत है
सहसा भूली याद तुम्हारी 
उर में आग लगा जाती है,
विरहातप भी मधुर-मिलन के 
सोये मेघ जगा जाती है,
मुझको आग और पानी में 
रहने का अभ्यास बहुत है,
जाने क्यों तुमसे...

धन्य-धन्य मेरी लघुता को 
जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता 
जिसने मुझे उदार बनाया;
मेरी अन्ध-भक्ति को केवल 
इतना मन्द प्रकाश बहुत है,
जाने क्यों तुमसे  ... 

अगणित शलभों के दल के दल 
एक ज्योति पर जलकर मरते,
एक बूँद की अभिलाषा में 
कोटि-कोटि चातक तप करते;
शशि के पास सुधा थोड़ी है 
पर चकोर की प्यास बहुत है,
जाने क्यों तुमसे... 

मैंने आँखें खोल देख ली है 
नादानी उन्मादों की,
मैंने सुनी और समझी है
कठिन कहानी अवसादों की;
फिर भी जीवन के पृष्ठों में 
पढ़ने को इतिहास बहुत है,
जाने क्यों तुमसे ... 

ओ जीवन के थके पखेरू, 
बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बन्दी है
मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिन्ता धरती यदि छूटी 
उड़ने को आकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की,
आशा कम विश्वास बहुत है।

-बलबीर सिंह 'रंग'

तुम कितने रूप नहाई हो

सावन-सा तन, फागुन-सा मन, 
यह मह-मह सारा घर आंगन
मलयानिल का पा प्रथम परस, 
तुम चंपा-सी बौराई हो
तुम कितना रूप नहाई हो! 
तुम कितने रूप नहाई हो!

कुछ जानी, कुछ अनजानी, 
कुछ जानी-अनजानी
एक बूंद ज्यों भरे हुए हो, 
सागर-भर पानी
ये तरल चरण, ये सजल तरण, 
यह सहज-सहज-सा संप्रेषण
तुम संतों की संध्या-भाषा, 
तुम तुलसी की चौपाई हो
तुम कितना अर्थ नहाई हो, 
तुम कितने अर्थ नहाई हो।

मेरे अंतर्मन की भाषा, 
प्राणों की प्रीता
श्रुति की कभी ऋचा लगती हो, 
मेरी संगीता
यह राग-रंग, यह स्वर सभंग, 
यह अंग-अंग की लय-तरंग
तुम रातों की हो बांसुरिया, 
तुम प्रातों की शहनाई हो
तुम कितना गीत नहाई हो, 
तुम कितने गीत नहाई हो।

कभी केश से, कभी वेश से, 
इंद्रधनुष फूटे
कभी भुजाओं के शिखरों से 
चंद्र-कला टूटे
तुम स्नेह-कथा, तुम रश्मि-रथा, 
इस तम-पुर की तुम ज्योति-प्रथा
जीवन की नूतन बाती पर, 
लहरी लौ की अगड़ाई हो
तुम कितना राग,नहाई हो, 
तुम कितने राग नहाई हो।।

-डॉ श्रीपाल सिंह क्षेम

Thursday, August 03, 2023

मैं प्यासा भृंग जनम भर का

मैं प्यासा भृंग जनम भर का
फिर मेरी प्यास बुझाए क्या
दुनिया का प्यार रसम भर का
मैं प्यासा भृंग जनम भर का

चंदा का प्यार चकोरों तक
तारों का लोचन-कोरों तक
पावस की प्रीति क्षणिक सीमित
बादल से लेकर भँवरों तक
मधु-ऋतु में हृदय लुटाऊँ तो,
कलियों का प्यार कसम भर का
मैं प्यासा भृंग ... 

महफ़िल में नज़रों की चोरी
पनघट का ढँग सीनाजोरी
गलियों में शीश झुकाऊँ तो
यह दो घूँटों की कमज़ोरी
ठुमरी ठुमके या ग़ज़ल छिड़े
कोठे का प्यार रकम भर का
मैं प्यासा भृंग ... 

जाहिर में प्रीति भटकती है
परदे की प्रीति खटकती है
नयनों में रूप बसाओ तो
नियमों पर बात अटकती है
नियमों का आँचल पकड़ूँ तो
घूँघट का प्यार शरम भर का
मैं प्यासा भृंग... 

जीवन से है आदर्श बड़ा
पर दुनिया में अपकर्ष बड़ा
दो दिन जीने के लिए यहाँ
करना पड़ता संघर्ष बड़ा
संन्यासी बनकर विचरूँ तो
संतों का प्यार चिलम भर का
मैं प्यासा भृंग जनम भर का।

-गोपाल सिंह नेपाली

सो न सका कल याद तुम्हारी

सो न सका कल 
याद तुम्हारी आई सारी रात
और पास ही कहीं बजी 
शहनाई सारी रात

मेरे बहुत चाहने पर भी 
नींद न मुझ तक आई
ज़हर भरी जादूगरनी-सी 
मुझको लगी जुन्हाई
मेरा मस्तक सहला कर 
बोली मुझसे पुरवाई
दूर कहीं दो आँखें भर-भर 
आईं सारी रात
और पास ही कहीं...

गगन बीच रुक तनिक चन्द्रमा 
लगा मुझे समझाने
मनचाहा मन पा जाना है ,
खेल नहीं दीवाने
और उसी क्षण टूटा नभ से 
एक नखत अनजाने
देख जिसे तबियत मेरी 
घबराई सारी रात
और पास ही कहीं...

रात लगी कहने सो जाओ, 
देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का 
रोना और तड़पना
यहाँ तुम्हारा क्या कोई भी 
नहीं किसी का अपना
समझ अकेला मौत मुझे 
ललचाई सारी रात
और पास ही कहीं...

मुझे सुलाने की कोशिश में, 
जागे अनगिन तारे
लेकिन बाज़ी जीत गया मैं 
वे सब के सब हारे
जाते-जाते चाँद कह गया 
मुझसे बड़े सकारे
एक कली मुरझाने को 
मुस्काई सारी रात
और पास ही कहीं
शहनाई सारी रात ।

-रमानाथ अवस्थी

Wednesday, August 02, 2023

सुहागिन का गीत

यह डूबी-डूबी  साँझ, 
उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी 
चले नहीं जाना बालम!

ड्योढ़ी पर पहले दीप जलाने दो मुझ को
तुलसी जी की आरती सजाने दो मुझ को
मंदिर  में घंटे, शंख और घड़ियाल बजे
पूजा की सांँझ, सँझौती गाने दो मुझ को
उगने तो दो उत्तर में पहले ध्रुव-तारा
पथ के पीपल पर कर आने दो उजियारा
पगडण्डी पर जल-फूल-दीप धर आने दो,
चरणामृत जा कर ठाकुर जी का लाने दो
यह डूबी-डूबी  साँझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी चले नहीं जाना बालम!

यह काली-काली रात
बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी-सी
चले नहीं जाना बालम!
बेले की पहले ये कलियाँ खिल जाने दो
कल का उत्तर पहले इन से मिल जाने दो
तुम क्या जानो ये किन प्रश्नों की गाँठ पड़ी?
रजनीगंधा से ज्वार सुरभि को आने दो
इस नीम-ओट से ऊपर उठने दो चन्दा,
घर के आँगन में तनिक रोशनी आने दो,
कर लेने दो तुम मुझ को बन्द कपाट ज़रा,
कमरे के दीपक को पहले सो जाने दो,
यह काली-काली रात बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी-सी चले नहीं जाना बालम!

यह ठण्डी-ठण्डी रात 
उनींदा-सा आलम
मैं नींद-भरी-सी, 
चले नहीं जाना बालम!
चुप रहो ज़रा सपना पूरा हो जाने दो,
घर की मैना को ज़रा प्रभाती गाने दो,
ख़ामोश धरा-आकाश, दिशाएँ सोयी हैं,
तुम क्या जानो, क्या सोच, रात-भर रोयी हैं?
ये फूल सेज के चरणों में धर देने दो,
मुझ को आँचल में हरसिंगार भर लेने दो,
मिटने दो आँखों के आगे का अँधियारा,
पथ पर पूरा-पूरा प्रकाश हो लेने दो,
यह ठण्डी-ठण्डी रात उनींदा-सा आलम
मैं नींद-भरी-सी, चले नहीं जाना बालम!

-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Tuesday, August 01, 2023

एक साथ कैसे निभ पाये

जितना नूतन प्यार तुम्हारा
उतनी मेरी व्यथा पुरानी
एक साथ कैसे निभ पाये  
सूना द्वार और अगवानी।

तुमने जितनी संज्ञाओं से
मेरा नामकरण कर डाला
मैंने उनको गूँथ-गूँथकर
साँसों की अर्पण की माला
जितना तीखा व्यंग्य तुम्हारा
उतना मेरा अंतर मानी
एक साथ कैसे निभ पाये 
मन में आग, नयन में पानी

कभी-कभी मुस्काने वाले
फूल, शूल बन जाया करते
लहरों पर तिरने वाले
मंझधार, कूल बन जाया करते
जितना गुंजित राग तुम्हारा
उतना मेरा दर्द मुखर है
एक साथ कैसे पल पाये 
मन में मौन, 
अधर पर बानी
एक साथ कैसे निभ पाये ...

सत्य-सत्य है किंतु स्वप्न में
भी कोई जीवन होता है
स्वप्न अगर छलना है तो
सत का संबल भी जल होता है
जितनी दूर तुम्हारी मंज़िल
उतनी मेरी राह अजानी
एक साथ कैसे मिल पाये 
कवि का गीत, संत की बानी
एक साथ कैसे निभ पाये 
सूना द्वार और अगवानी।

-स्नेह लता 'स्नेह'